Thursday, September 8, 2011

ख़ामोश ! अन्नागिरी जारी है

अन्ना का अनशन तो समाप्त हो गया.इसमे जीत किसकी हुई,कहा नहीं जा सकता.जन लोकपाल बिल को संसद के इसी सत्र में पास करने की मांग अंततः संसद से तीन मांगों के प्रस्ताव को पारित कराने पर आ टिकी.इसमे भी सत्ता पक्ष और विपक्ष की  नौटंकी साफ़ नजर आई.कई तरह की अड़ंगेबाजी के बाद प्रस्ताव पारित होकर स्टैंडिंग कमिटी को भेजने की बात कही गई.वहां यह प्रस्ताव क्या रूप लेती है,कहना कठिन है क्योंकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी दल एक ही थैली के चट्टे बट्टे नजर आते हैं.
           
अन्ना के बारह दिनों के अनशन ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं.कई चेहरे बेनकाब हुए तो कई चेहरे पर नकाब डाले घूमते फिर रहे थे.सत्ताधारी दल के एक प्रवक्ता जिस नाटकीय भाव भंगिमा के साथ आरोप लगते नजर आए,बाद में वे खुद को अफ़सोस जताते नजर आए. आयोजकों में भी  गंभीरता कमी थी. पूर्व पुलिस आयुक्त जिस तरह रामलीला मैदान के मंच पर अभिनय करती नजर आई उससे लगा कि वे टी.वी एंकरिंग के हैंग ओवर से बहार नहीं निकल पाई हैं.अभिनेता ओम पुरी तो किसी फिल्म के संवाद ही पढ़ते नजर आए.इन लोगों पर संसद की अवमानना का मामला लम्बा खिंचने की आशंका है.वैसे संसद सदस्य संसद में जिस तरह का आचरण करते हैं वह संसद की महिमा बढ़ाने वाला नहीं है.माईक तोड़ना,कुर्सियां फेंकना,हाथा पाई,गाली-गलौज आदि दृश्य तो अब आम हो चले हैं. पत्नी के नाम पर दूसरी स्त्री के साथ हवाई यात्रा करना,पैसे लेकर सवाल पूछना,हत्या जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त रहना,संसद की गरिमा बढ़ाने वाला तो कतई नहीं है.तो फिर संसद सदस्यों के भोंडी नक़ल पर इतनी हाय तौबा क्यों.
       
अन्ना का अनशन तो पूर्व निर्धारित था.जिस तरह सरकार ने इस मसले को हैंडिल किया वह अफसोसनाक था.भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम में जिस तरह लोगों की भीड़ रामलीला मैदान में उमड़ी,उससे तो यही साबित होता है कि लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं और इससे छुटकारा पाना चाहते हैं.सरकार के नुमाइंदों की बेशर्मी इसी से पता चलती है कि एक तरफ तो अन्ना बारह दिनों से अनशन पर थे तो दूसरी और सर्वदलीय बैठक के नाम पर सत्ता और विपक्ष के प्रतिनिधि स्नैक्स टूंगते नजर आए.
        
इस आन्दोलन में जिस तरह समाज के सभी तबकों की भागीदारी रही,वह भी चौंकाने वाला  रहा. खाते,पीते,अघाए युवा पीढ़ी का व्यापक समर्थन तो और भी जोशीला रहा.वह वर्ग जो आजादी के कई दशकों बाद पैदा हुई और जिसने आजादी के आन्दोलन को न तो देखा और न ही महसूस किया, उसके लिए तो यह अवसर मानो भाग्य से प्राप्त हो गया.हिंदुस्तान की बुढाती नेतृत्व के सामने यही युवा वर्ग अन्ना के आन्दोलन में जोश भरते नजर आए.राजधानी दिल्ली के अभिजात स्कूल,कॉलेजों के छात्र,छात्राएं भी इस आन्दोलन में शिरकत करते नजर आए.इस आन्दोलन की गूंज राजधानी दिल्ली से लेकर देश के गावों,कस्बों तक सुनाई पड़ी.
       
पिछले कई घोटालों,घपलों से घिरी केंद्र सरकार की इस मामले पर हठधर्मिता और अधकचरा होमवर्क भी साफ़ नजर आया.रामलीला मैदान की पिछली गलती से सबक लेते हुए सरकार ने जिस तरह अपने कदम पीछे  किये,उसके बाद तो गिरफ्तारी से लेकर रिहाई,फिर अनशन तक अन्ना और उनके समर्थकों की चली.यह वाकई चिंताजनक स्थिति है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए सरकार के पास कोई स्पष्ट और कारगर नीति नहीं है.नहीं तो आदर्श सोसायटी घोटाले,कॉमनवेल्थ,2G,3G एवम अन्य घोटालों की बाढ़ नहीं आती.अन्ना ने तो जनता की नब्ज पर हाथ रखी और जनता उनके पीछे-पीछे चली आई.यह तो आने वाले समय में पता चलेगा कि लोकपाल बिल क्या आकार लेती है पर इसके प्रभावों से  केंद्र सरकार अछूती नहीं रह सकेगी. 

Thursday, September 1, 2011

लुगदी साहित्य से साहित्य तक

साहित्य पढ़ने की शुरुआत लुगदी साहित्य से ही हुई,जैसा कि आमतौर पर सभी व्यक्ति करते हैं.उन दिनों जासूसी उपन्यासों की खूब लोकप्रियता थी.मेरठ से छपने वाले जासूसी उपन्यास ,जिसे साहित्यकार लुगदी साहित्य कहते हैं,बहुतायत में थे.कर्नल रंजीत,सुरेन्द्र मोहन पाठक,वेद प्रकाश शर्मा आदि के उपन्यास खूब पसंद किये जाते थे.

फिर एक दिन शिवानी के उपन्यास 'चौदह फेरे' पढ़ने का अवसर मिला.शुरू में तो उपन्यास की भाषा कुछ क्लिष्ट लगी पर एक बार पढ़ना शुरू किया तो उसमे डूब सा गया.उसके बाद उनके उपन्यासों को कई कई बार पढ़ा.उनकी संस्कृत और बंगला मिश्रित भाषा लेखनी में कई जगह दिखाई पड़ते हैं तो गाँव,समाज में प्रचलित परम्पराएँ,बोल-चाल अक्सर दिखाई देते हैं.चौदह फेरे में पहाड़ की प्रचलित भाषा में बड़े,बुजुर्गों के लिए 'ज्यू' शब्द का प्रयोग रोचक  है.

'चौदह फेरे' धारावाहिक के रूप में 'धर्मयुग' में भी छपा था.चौदह फेरे लेनेवाली कर्नल पिता की पुत्री अहल्या जन्म लेती है अल्मोड़े में, शिक्षा पाती है ऊटी के कान्वेन्ट में, और रहती है पिता की मुँहलगी मल्लिका की छाया में. और एक दिन निर्वासित, हिमालय में तपस्यारत माता के प्रबल संस्कारों से बँध सहसा ही विवाह के दो दिन पूर्व वह भाग जाती है, कुमाऊँ अंचल में.


समूचा उपन्यास विविध प्राणवान् चरित्रों, समाज, स्थान तथा परिस्थितियों के बदलते हुए जीवन मूल्यों के बीच से गुजरता है.
          
अस्सी के दशक में 'सुरंगमा' धारावाहिक के रूप में 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में छपा था.हम पत्रिका के आगामी अंक की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते ताकि आगे की कहानी जान सकें.सुरंगमा में बांगला के प्रसिद्ध कवि बुद्धदेव बसु की कविता का प्रयोग दिल को छू लेने वाला है.......                                                                      

                                                          
                                                          
                                                          छोट्टो घर खानी
                                                          
मने की पड़े सुरंगमा ?
                                                         
मने की पड़े, मने की पड़े
                                                         
जानालाय नील आकाश झरे
                                                         
सारा दिन रात हावाय झड़े

                                                           सागर दोला....
                                             
                                              (उस छोटे से कमरे की याद है सुरंगमा ?
                                           
बोलो, क्या अब कभी उस कमरे की याद आती है ?
                                           
जहाँ कि खिड़की से नीलाकाश
                                           
बरसता कमरे में रेंग आता था
                                           
सारे दिन-रात तूफान
                                           
समुद्र झकझोर जाता था)

एक प्राणों से प्रिय व्यक्ति तीन-चार मधुर पंक्तियों से सुरंगमा के जीवन को झंझा के वेग से हिलाकर रख देता है. बार बार.

शराबी, उन्मादी पति से छूट भागी लक्ष्मी को जीवनदाता मिला अँधेरे भरे रेलवे स्टेशन में. रॉबर्ट और वैरोनिका के स्नेहसिक्त स्पर्श में पनपने लगी थी उसकी नवजात बेटी सुरंगमा, लेकिन तभी विधि के विधान ने दुर्भाग्य का भूकम्पी झटका दिया और उस मलबे से निकली सरल निर्दोष पाँच साल की सुरंगमा कुछ ही महीनों में संसारी पुरखिन बन गई थी फिर शिक्षिका सुरंगमा के जीवन में अंधड़ की तरह घुसता है एक राजनेता और सुरंगमा उसकी प्रतिरक्षिता बन बैठती है.

एक एकाकी युवती की आंतरिक और बाहरी संघर्षों की मार्मिक कथा है 'सुरंगमा'.
शिवानी के कई उपन्यासों और कहानियों को पढ़ा है.'कैंजा','श्मशान चंपा','कृष्ण कली','भैरवी' आदि अनेक उपन्यास सीधे दिल को छू लेते हैं.