Monday, August 26, 2013

परती परिकथा : कोसी की






कहते हैं कि केवल धरती ही बंजर नहीं होती,कभी-कभी आदमी का मन भी बंजर हो जाता है. उसमें उल्लास,उमंग के कोई फूल नहीं खिलते.

‘रेणु’ के ‘परती परिकथा’ को पढ़ते समय ऐसा ही आभास हुआ.कोसी के अंचलों में बरसों रहा हूँ. कोसी के विभिन्न क्षेत्रों में घूमा हूँ.तब ऎसी अनुभूति नहीं हुई क्योंकि तब ‘रेणु’ की ‘परती परिकथा’ जो नहीं पढ़ी थी.तब कटिहार से फारबिसगंज होते हुए जोगबनी(भारतीय सीमा का अंतिम स्टेशन) और नेपाल के सीमावर्ती शहर विराटनगर की दर्जनों बार यात्राएँ की थी. 

पूर्णिया से सवारी गाड़ी के आगे बढ़ते ही ‘रेणु’ द्वारा रचित 'परती परिकथा' की परिकल्पना जैसे साकार सी होने लगती है.सिमराहा के बाद ‘औराही हिंगना’ छोटा सा हाल्ट था ,जो अब रेणु ग्राम हो गया है,इसी की मिट्टी में रेणु पले,बढ़े.

 सवारी गाड़ी की खिड़की से झांकते ही कास के घने जंगल(एक प्रकार का जंगली घास) और उसी से बनी बांस और बत्ती की झोपड़ियाँ दिखाई देने लगती हैं.क्या संपन्न और क्या विपन्न सभी के घरों के दरवाजे पर कास की एक झोपड़ी तो अवश्य ही दिखाई देती है.खेतों की पगडंडियों से आते-जाते लोग बाग़ बरक्स ध्यान खींच लेते हैं.रेणु ने सिमराहा से फारबिसगंज (समीपवर्ती सबसे बड़ा शहर) तक की जो तस्वीर खींची थी, वे अब भी मौजूं हैं.कोसी की विनाश लीला से संतापित यह क्षेत्र हमेशा से ही उपेक्षित रहा है.कोसी को यूँ ही ‘बिहार का शोक’ नहीं कहा जाता.

कोसी का दंश झेलने वाले व्यक्तियों से चर्चा करते ही चेहरे पर उभरे भावों को साफ़ पढ़ा जा सकता है. पहली बार कटिहार और पूर्णिया की धरती पर पैर रखते ही हिदायत मिली थी कि यहाँ का पानी काला है. दांत काले हो जाते हैं और कपड़ों में भी कालापन आ जाता है.कमोबेश इसी सच्चाई से रूबरू होता रहा.

कई बार किसी कथा,कहानी,उपन्यास को पढ़ने के बाद महसूस होता है कि कहानी कुछ अधूरी रह गई.इसके आगे क्या होता. कई तरह के तर्क-वितर्क मन में उठने लगते है.क्या उपन्यासकार ने जानबूझकर कथानक को अधूरा छोड़ा.मन सोचने लगता है कि अच्छा होता यदि कहानी आगे बढ़ती.


कथा शिल्पी ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ की ‘परती परिकथा’ को दुबारा पढ़ते समय ऐसा ही लगा.लगा कि कहानी कुछ अधूरी रह गई है.जमींदारी उन्मूलन के बाद का समाज,कोसी के अंचलों में व्याप्त गढ़ी-अनगढ़ी कहानियां,ग्राम्य गीत,लोक-संगीत,लोक गाथाओं की बूझ – अबूझ पहेलियाँ,तकनीकी का सधः प्रवेश.सब कुछ मिलकर ऐसा लगता है मानो सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो.

ताजमनि का क्या हुआ? जितेन्द्र नाथ मिश्र एवं ईरावती का क्या हुआ? जितेन्द्र ने बचपन में ही विदेश ले जाई गयी बहन दुलारी दाय का पता लगाया या नहीं,गाँव के लोगों में जो रिक्तता की भावना थीं,वह दूर हुई या नहीं .परानपुर के अधूरे इतिहास,गीतावास कोठी की,मेम माँ की लिखी-अलिखी अधूरी गाथा का जितेन्द्र के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है आदि कुछ सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं. काश! कहानी कुछ और आगे बढ़ती तो मन तृप्त हो जाता.

इसी उपन्यास से प्रस्तुत है एक चित्र, जो दिल को छू जाता  है :

दिल बहादुर भी एक दिन तलो तिर (पहाड़ पर रहने वाले ,समतल भूमि को तलो कहते हैं ,दिल बहादुर तीन नंबर पहाड़ पर रहता है. नेपाल की तराईयों  के उत्तर ,तीन पहाड़ियों के बाद !तीन नंबर पहाड़ !नीचे उतरने में चार दिन लग जाते हैं) हिंदुस्तान की ओर चल पड़ा.

सुन्तुला(संतरा) की डाली पकड़कर खड़ी कांछीमाया की धुंधली तस्वीर घने कोहरे में खो गई. वह ढलान की पगडंडी से नीचे उतरता चला गया। पहाड़ी के घने जंगलों में ,लकड़ी काटती हुई पहाड़ीनों  के 'झाऊरे'(एक पहाड़ी लोकगीत,जिसमें राही से प्रश्न पूछे जाते हैं. राही भी गा - गाकर जबाब देता है ) खूब रस - रसाकर  दिलबहादुर ने दिया. चीसापानी झोरा के पास सुनी झाऊरे की एक कड़ी... ...

मधेश तिर हिंड़े को मान्छे

शहर लख्नो कैले जाने ऐं ऐं ऐं  ...

गारद मा बसने मेरी लोग्निलाई ..........

मधेश की ओर जाने वाले ! यदि तुम कभी लखनऊ शहर जाओ, तो वहां के गारद में रहता है जो भला सा आदमी ,उससे कहना -- तुम्हारा बेटा  दौड़ना सीख गया है और काली बाछी को तीसरा बाछा हुआ है …. जंगल में लकड़ी काटते समय मेरे हाथों में सोने के चूर झनकेंगे ....झनक - झनक ! सुनकर तुम निश्चय ही मुझे पहचान लोगे. कोई ऐसा काम मत करना ,लाज ले मरन गराई - लाज से मैं इसी जंगल में मर जाऊँगी !.......

जंगल ,जंगल ! ढलान उतार ! उतरती राह उलटकर कोई पंथी नहीं देखता. दिलबहादुर उतरता गया .
उसकी प्रेमिका  कांछीमाया ने सौगंध देकर कहा है ,'मेरो रगत खाने '! चांदी सोने का पहाड़ भी मिले ,पलटन में मत जाना. कल से मैं तुम्हारी बांसुरी नहीं सुन सकूंगी. तीन बार सुन्तुला की डाली में फूल लगेंगे. तीन  बार सुन्तुला की डाली झुक-झुक  जाएगी फलों से. सुन्तुला तोड़ते समय तुम्हारे गालों की याद आएगी. तुम नहीं लौटोगे तो मेरी माँ मुझे उस नमक के बूढ़े व्यापारी के हवाले कर देगी. सुगंठी(सूखी मछली) की गंध उस बूढ़े की सांसों में बसी है.

अमर कथा शिल्पी ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ के अन्य उपन्यास ‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’ को पढ़ते समय ऐसा नहीं लगा था कि रचनाकार जानबूझकर कथानक को पूर्णविराम दे देता है,कथानक को आगे नहीं बढ़ता.पाठकों के विवेक पर छोड़ देता है.रेणु की ‘परती परिकथा’ परानपुर इस्टेट, फारबिसगंज, पूर्णिया, कटिहार, भागलपुर, पटना आदि के आस-पास घूमती है.

रेणु के कथानक को कहने की कला,नेपाली,बांग्ला,मैथिली,अंगिका में संवाद सब कुछ अद्वितीय हैं. ग्रामीण समाज में प्रचलित अन्धविश्वास,कुरीतियाँ रेत की तरह बिखरे पड़े मिलते हैं.स्थानीय राजनीति,गुटबाजी,समाज में परिवर्तन की बहती बयार, सब कुछ आँखों के सामने घटित होता प्रतीत होता है.

Friday, August 23, 2013

पावन प्रतीक : शंख





शंख भारतीय संस्कृति का एक पावन प्रतीक है.इसका न केवल सामाजिक महत्व  है बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी इसका भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है.

समुद्र में रहने वाला एक जीव, जो अपनी आत्म रक्षा के लिए शरीर के चारों ओर एक आवरण बनाता है. कुछ समय बाद वह इस आवरण को त्याग कर 'नया घर ' बनाने में जुट जाता है. उस जीव द्वारा  गया यह खोल देवताओं द्वारा अपनाया जाता है,सामान्यजनों का वह आभूषण भी बनता है और सभ्यता के एक दौर में उसने मुद्रा की भूमिका भी अभिनीत की है. इस आवरण को हम सब शंख के नाम से जानते हैं.

प्राचीन भारतीय संस्कृति में शंख का एक विशिष्ट स्थान रहा है. आज भी शंख हमारे धार्मिक जीवन से बहुत गहरे से जुड़ा हुआ है. हम शंख की पूजा करते हैं ,देवताओं की पूजा -अर्चना के समय शंखनाद कर मंगल ध्वनि करते हैं. पश्चिमी बंगाल में विवाह के अवसर पर शंख -ध्वनि अनिवार्य मानी जाती है. वहां ,महिलाएँ शंख की चूड़ियाँ ,शंख की मालाएं पहनती हैं.  ज्योतिषी भी चंद्रदोष दूर करने के लिए मोती उपलब्ध न पर उसके स्थान पर शंख की अंगूठी पहनने का परामर्श देते हैं.

शंख बौद्ध धर्म के आठ पवित्र चिन्हों में से एक है.  इन्हें अष्टमंगल कहा जाता है. शंखों का आयुर्वेदिक दवाईयों के रूप में भी इस्तेमाल होता है. शंख भस्म का उपयोग पेट संबंधी बीमारियों एवं सौन्दर्य प्रसाधनों में भी उपयोग होता है.

समुद्र के जीव करोड़ों वर्षों से अपनी आत्मरक्षा के लिए इस तरह के खोल बनाते आ रहे हैं. पारिभाषिक शब्दावली में ये जीव मोलस्का और और बोलचाल की भाषा में घोंघा कहलाते हैं. ये घोंघे जैसे -जैसे बड़े होते हैं ,अपने खोल को न केवल बड़ा बल्कि मजबूत भी करते जाते हैं. ये खोल चूने के कार्बोनेट के साथ - साथ कैल्सियम फास्फेट और मैग्नेशियम कार्बोनेट का बना होता है. इसी खोल को हम शंख के नाम से जानते हैं.

कुछ जीवों के एक ही खोल होता है. किसी किसी जीवों के दो खोल होते हैं. इन खोलों पर बल पड़े होते हैं. इनमें से कुछ बल एक ही दिशा में होते हैं तो कुछ दूसरी दिशा में. इन बलों के आधार पर ही इन्हें दायें और बाएं हाथ वाला शंख कहा जाता है.

शंखराज का खोल सबसे बड़ा होता है. इसके अंदर का स्तर मोती जैसा गुलाबी होता है. इसमें कान लगाकर सुनने पर समुद्र जैसा गंभीर गर्जन सुनायी पड़ती है ,क्योंकि बल पड़े  खोल में जरा सी आवाज बहुत ज्यादा बढ़ी चढ़ी सुनाई पड़ती है.

अनुमान है की समुद्र में 75 हजार तरह के जीव शंखों और खोलों में रहते हैं. इनमें से बहुतों के सिर तो केवल पिन के बराबर होते हैं.

शंख करोड़ों वर्षों से बनते आ रहे हैं ,लेकिन मनुष्य ने उनका उपयोग  लगभग दस हजार वर्ष पहले ही सीखा है. शंखों से उसने आभूषण बनाये ,मुद्रा के रूप में भी उनका उपयोग किया और धारदार शंखों से उसने औजारों का भी काम लिया. अमेरिका ,एशिया ,अफ्रीका ,आस्ट्रेलिया आदि महाद्वीपों में आदिम मनुष्य शंखों के आभूषण पहनता था. फिर ,उसने कौड़ियों के साथ - साथ शंखों को भी क्रय -विक्रय का माध्यम बनाया. अठारहवीं सदी में शंखों का संग्रह करने का फैशन भी चला. 

Monday, August 19, 2013

मोती है अनमोल











 

वैसे तो मोती दुनियाँ के अनेक समुद्रों में पाया जाता है . लेकिन जो मोती फ़ारस की खाड़ी में (समुद्र से निकली हुई एक बांह के सामान) पैदा होता है ,वैसा और कहीं मिलता . शायद वहां के जल और मिट्टी में कुछ ऐसा असर है कि वे मोती जैसे रत्न पैदा करते है . उसका एक खास व्यक्तित्व है,एक खास सौन्दर्य है,जो युग -युग से नारी-मन को आकर्षित करता रहा है. मिस्र की टालमी - वंशीय रानी क्लियोपैट्रा की गणना संसार की तीन - चार सुंदरियों में की जाती है. ट्रॉय की हेलन के बाद  वही प्रसिद्ध हैं. उसे इन मोतियों इतना  शौक था,कि सोना, हीरा , माणिक, नीलम आदि कीमती और चमकदार रत्नों को छोड़ इन्हीं मोतियों को उसने अपने श्रृंगार का मुख्य साधन बनाया था .

कई यूनानी लेखकों के अनुसार वह अपनी राजधानी एलेक्जेंड्रिया की सड़कों पर बर्फ से भी अधिक सफ़ेद घोड़ों के सोने के चमचमाते हुए रथ पर सैर को निकलती थी.अमावस की रात से भी ज्यादा काले ,खुले हुए अपने बालों को पीठ पर लहराती हुई ,ऊपर से नीचे तक श्वेत वस्त्रों से सुसज्जित.सर पर केवल एक स्वर्ण -मुकुट, गरुड़ की शक्ल का और गले में बसरे के बड़े - बड़े मोतियों का हार.बगल में दोनों  ओर दो श्वेत वस्त्रधारिणी परिचारिकाएँ- परियों से मुकाबला करती हुई खड़ी रहतीं ,हाथों से चंवर डुलाती हुई .रानी क्लियोपैट्रा संसार प्रसिद्ध अपनी सुन्दरता को चारों ओर बिखेरती हुई चलती तो एक समां बंध जाता.लोग घरों से निकल पथ के दोनों और कतार बांध खड़े हो जाते,महज देखने के लिए.
इस सारे श्रृंगार की सबसे बड़ी देन थे, मोतियों के अलंकार. उन्हें वह अपने विभिन्न अंगों पर सजाती और उनके चेहरे और सफ़ेद कपड़ों पर खूब सजते.मोती के भी,खासकर बसरे के ख़ास आकार के मोती के हार जो उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते थे. 
 
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को भी जेवरातों में सबसे अधिक प्रिय मोती के हार लगते.  जब अंग्रेजी फौजों ने झाँसी के किले पर घेरा डाल दिया तो उन्होंने एक रात सबको इकठ्ठा कर अपने सारे जेवरात बाँट दिए और अपना प्रिय मोतियों का हार पहन कालपी की ओर निकल पड़ी.अपना अंत समय आते देख मोतियों के हार को गले से निकाल कर सैनिकों को यह कहकर दिया कि बहुत कीमती हैं.इन्हें आपस में बाँट लें. 
 
मोती हमेशा से नारी श्रृंगार का एक बहुत बड़ा अंग रहा है और नारियों को हीरा ,माणिक,पुखराज से भी ज्यादा प्रिय बसरे के वे मोती हैं ,जो आज आमूल विनाश के कगार पर खड़े हैं .
 
मोती कई प्रकार के होते हैं .पहली श्रेणी उन मोतियों की है,जो अरब सागर से निकली हुई संसार - प्रसिद्ध ईरान की खाड़ी में युगों - युगों से होते आये हैं.यहाँ के सीप आकार में औरों की अपेक्षा कुछ ज्यादा बनावट में भी बड़े होते हैं एवं उनकी बनावट में भी कुछ अंतर होता है .जिसे सदियों से संसार बसरा मोती के नाम से जाना जाता रहा है,वे इन्हीं के उदर से पैदा होते हैं. ये विशुद्ध मोती हैं ,यानि सहज रीति से उत्पन्न,इसमें मानव हाथों का कोई हिस्सा नहीं होता.सभी सीपों से मोती उत्पन्न नहीं होते ,कुछ ही में होते हैं .शायद इस विचार या कल्पना का भी कि जिस सीप पर स्वाति नक्षत्र की बूंदें  पड़ती हैं,उन्हीं में मोती उत्पन्न होता है,का आधार भी यही दुर्लभता है.
 
अरब सागर से निकली हुई मानो उसकी एक बांह हो फारस की खाड़ी,जिसमें संसार के सबसे,चमकीले तथा रंगबिरंगे मोती पैदा होते रहे हैं.प्रशिक्षित डुबकी लगाने वाले नावों से कूद-कूद कर पानी की सतह में चले जाते हैं और बोरी भरकर सीप उठा लाते हैं .  किन सीपों में मोती है उन्हें इस बात का आभास मिल जाता है और वे कुछ प्रक्रियाओं के द्वारा उन्हीं में से मोती निकाल लेते हैं बाकी को पुनः जल के अन्दर डाल देते हैं ताकि कालांतर में वे भी मोती के वाहक बन सकें .जिन सीपों के भीतर से वे मोती निकाल लेते हैं,वे मर जाती हैं .
 
ईरान की खाड़ी के इन सीपों को ही यह गौरव प्राप्त था कि वे सारी दुनियाँ में सबसे ज्यादा क़द्र किये जाने वाले मोती प्राप्त कर पाते थे तथा वे केवल सफ़ेद ही नहीं,कई रंग के मोती उत्पन्न करते थे,गुलाबी,नारंगी और काले जो संसार में विरले ही पाए जाते हैं .काले मोती ऊँचे दामों पर बिका करते थे.खाड़ी के इन सीपों में मोती का निर्माण अपने आप से होता है .सीप के भीतर यानि उदार में एक प्रकार का गहरा रस यानि तरल पदार्थ स्वतः जमा होने लगता है,तह-पर तह.पहले तो वह कोमल होता है,पर धीरे -धीरे उसकी कठोरता बढ़ती जाती है और यह काफी मोटा और कठोर बन जाता है .साथ -साथ इसकी चमक में भी इजाफ़ा होता है और ज्यादा आकर्षक लगने लगता है .यह क्रम प्रायः दस साल तक चलता रहता है ,तभी यह उस रूप को पकड़ता है जिसे हम मोती कहते हैं .
 
बसरा दक्षिण-पूर्व इराक का एक शहर है ,जो दजला -फ़रात नदियों और ईरान की खाड़ी से जुड़े हुए अल -अरब नदी के करीब पड़ता है .युगों से यह मोती और गुलाब के फूलों के लिए मशहूर बना रहा है .मोती की कटाई करने वाले कारीगरों का यह गढ़ बना रहा है तथा संसार में ईरान की खाड़ी से निकले हुए मोतियों की सबसे बड़ी मंडी भी .यही कारण है ,इन मोतियों को 'बसरा मोती ' के नाम से पुकारा जाता है .अरब सागर और खाड़ी के सारे मोती पहले इसी मंडी में आते हैं,फिर यहाँ से यह देश -विदेश और संसार के विभिन्न शहरों में जाकर बिकते हैं . इसके व्यापारी इन्हें यहाँ कम कीमत में खरीदकर इनका दूर - दूर के देशों तक व्यापार किया करते हैं .

खलीफों के दरबार में बसरा के मोतियों की बड़ी मांग थी .वे यहीं से खरीद कर बग़दाद और दमिश्क ले जाया करते थे. रूस की जारीन इन मोतियों को काफी पसंद करती थीं .वहां ये व्यापारी काफी बड़ी कीमत पर इन्हें बेचा करते थे. हिंदुस्तान में भी  इनकी काफी कीमत थी ,पर तब जबतक की खाड़ी के सीपों का संहार नहीं हुआ था .
 
इनके बुरे दिन तब आये ईरान तथा खाड़ी के चारों ओर के चारों ओर के अन्य देशों में तेल के हजारों कुएँ निकल आए थे .तेल की आज संसार में इतनी मांग है कि वह सोने से भी कीमती हो रहा है तथा मध्पूर्व के इन देशों की समृद्धि बढ़ गई है .इन सबके बीच उन्हें मोती की कोई परवाह नहीं .तेल के कुओं से निकले तेल के गंदे हिस्से को,जिसकी कोई उपयोगिता नहीं है,खाड़ी के जल में फेंक देते हैं .यह सीपों और मछलियों के लिए जहर है .फलतः इससे दूषित खाड़ी के जल के स्पर्श मात्र से वे मर जाते हैं .
 
आज स्थिति यह है कि संसार में बसरा मोती का पाना असंभव सा हो रहा है . हिंदुस्तान से बसरा के इन मोतियों की ऊँची कीमतें देकर विदेशी खरीद ले गए .अभी भी इनकी तलाश में दिल्ली ,जयपुर आदि शहरों में दलालों का दामन पकडे हुए घूमते नजर आते हैं .आज यदि अपने देश में बसरा मोती यदि कहीं बचे हुए हैं लखनऊ ,जयपुर आदि के कुछ पुराने घरों में जहाँ की महिलाएँ इन्हें बेचना नहीं चाहती .चूँकि ये सुहाग की वस्तु के अंग हैं -गले के हार ,नाथ और मांग में पहनने वाले मंगल टीका आदि में लगे हुए ,इसलिए इसे बेचना अच्छा नहीं समझा जाता.
 
कुछ बरसों में बसरा के मोती की सिर्फ यादें रह जाएँगी. एक न एक दिन मध्यपूर्व के तेलों के कुएँ सूख जाएँगे लेकिन खाड़ी के सीपों में प्राण नहीं लौटेंगे.
 
मोतियों की अनेक किस्मों में एक मोती कल्चर श्रेणी के हैं. ये अधिकांशतः जापान में पाए जाते हैं। प्रशिक्षित गोताखोर समुद्र में  डुबकी लगाकर झोलियों में सीप बाहर निकल लेट हैं। फिर उनके भीतर शीशे की एक सुडौल गोली डाल देते हैं और  पुनः समुद्र के काफी भीतर डाल आते हैं। एन गोलियों पर भी तरल पदार्थ की परत दर परत जमा होने लगती है,जो दो से पांच वर्षों में मोती का रूप धारण कर लेता है। इन्हें तराशने की जरूरत नहीं पड़ती. पर ये शुद्ध नहीं होते. फिर भी इनकी मांग बढ़ रही है। श्रृंगार के लिए आज इनका ही उपयोग हो रहा है.
 
ईरान की खाड़ी के बाद जापान का समुद्र ही मोतियों के लिए विख्यात है पर इनमें खाड़ी के मोतियों के सामान चमक नहीं होती। 
 
एक श्रेणी के मोती मानव निर्मित होते हैं जो शीशे की गोलियों पर मछलियों के चोइयें की मदद से बनाया हुआ ,एक प्रकार का गहरा लेप चढ़कर बनाया जाता है जो सूख कर काफी सुन्दर बन जाता है। और ये गोलियां हूबहू मोती जैसी लगती हैं। 
 
एक किस्म की मोती वे हैं जो छोटी छोटी नदियों के गर्भ में बालू के साथ मिले हुए सीपों में पाए जाते हैं.ये बहुत छोटे कद के होते हैं-सरसों जैसे. इनका एकमात्र उपयोग आयुर्वेदिक औषधि बनाने में होता है. मोती की भष्म इन्हीं से बनायीं जाती है- खरल में,गुलाब जल के साथ इन्हें पीसकर. आयुर्वेद में कई रोगों में मोती की भष्म महाऔषधि मानी गई है.   


Thursday, August 15, 2013

मेरे घर आना गोरैया



आज फिर से यह कहने को दिल कह रहा है 'मेरे घर आना गोरैया,फिर से दाना चुनना गोरैया'.

बचपन के दिन भी क्या दिन थे जब गोरैया की चहचहाहट से सुबह की नींद खुल जाती थी.सुबह उठते ही आँगन  में इधर -उधर फुदकती,गिरे अनाजों को चुनती गोरैया दिख जाती थी.

गांवों,घरों के आँगन में यह छोटी सी चिड़िया सहज ही नजर जाती थी.प्रायः फूस के घरों में गोरैया का घोंसला होता था.शहरों के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में यह छोटी सी चिड़िया समूह बना कर रहती थी.यह लोगों की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा थी.बचपन के दिनों में हमलोगों ने कितनी ही बार गोरैया के घोंसलों में हाथ डाला होगा और छोटी सी,छुई-मुई सी गोरैया के बच्चों को हथेली के बीचोबीच रख कर उत्सुकता से निहारा होगा.आँगन में सूखने के लिए रखे अनाजों पर मंडराती गोरैया,बरबस ही गृहिणी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेती थी.घर की गृहिणी से उसका अटूट नाता होता था.कारण,उसका दाना-पानी गृहिणियों के भरोसे ही था.पर अब ऐसा नहीं रहा.हर तरफ नजर आने वाली गोरैया अब इक्का-दुक्का ही नजर आती है.

लोकमान्यताओं के अनुसार जिन घरों में गोरैये के घोंसले होते थे वहां लक्ष्मी का वास मन जाता था.पर अब स्थिति बिलकुल बदल चुकी है.

गोरैया की संख्या में लगातार कमी आने का प्रमुख कारण बढ़ता शहरीकरण है.इसने गोरैया का आशियाना छीन लिया है.पहले गांवों में फूस के घर होते थे,जिनके तिनके से वह घोंसला बनाकर रहती थी.पर अब कंक्रीट के बढ़ते मकानों ने गोरैया का चमन उजाड़ दिया है.गोरैया की संख्या में कमी आने की दूसरी प्रमुख वजह उसके भोजन में आई कमी भी है.पहले गांवों के आँगन में अनाज बिखरे मिलते थे,पर अब इन्हें बिखरे अनाज भी नसीब नहीं है.

गोरैया की संख्या में आई लगातार कमी की एक वजह भवन निर्माण शैली में आया परिवर्तन भी है.पहले पर्शियन शैली में भवनों का निर्माण होता था.उसमे मुंडेर रहा करती थी.यहाँ गोरैया आराम से घोंसला बनाकर रहती थी.अब पर्शियन शैली की जगह आधुनिक शैली के मकान बनने लगे हैं.यह सपाट होती है एवं इसमें मुंडेर नहीं होते. इसमें गोरैया के घोंसले के लिए कोई गुंजाईश नहीं होती.

फिर जो पर्शियन शैली के मकान थे अब उसमें से ज्यादातर के भग्नावशेष ही बचे हैं.खेतों में कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग और मोबाईल टावरों से निकलनेवाली तरंगों ने भी गोरैया के मृत्युदर में भारी वृद्धि की है.

 गोरैया पक्षी के विशेषज्ञ डेनिस समरर्स-स्मिथ शीशा रहित पेट्रोल के बढ़ते चलन को भी गोरैया की संख्या में कमी आने का कारण मानते हैं.सामान्यतया शीशा रहित पेट्रोल को वातावरण के अनुकूल माना जाता है. इसमे MTBE (मिथाईल टरटीयरी बुटाईल एथर) एक प्रमुख कारक है.शीशा रहित पेट्रोल से चलने वाले वाहनों से निकलने वाले धुएं से छोटे-छोटे कीड़े,मकोड़े मर जाते हैं.

ये छोटे-छोटे कीड़े,मकोड़े इस तरह की पक्षियों के भोजन होते हैं.हालाँकि वयस्क गोरैया इन कीड़े,मकोड़े के बगैर भी जिन्दा रह सकती है,लेकिन अपने नवजात बच्चों को खिलाने के लिए इसकी जरूरत पड़ती है.मनुष्यों की जीवन शैली में बदलाव भी एक प्रमुख कारण है.

यह बात अलग है की हर साल 22 मार्च को दुनियां भर में अंतर्राष्ट्रीय गोरैया दिवस मनाकर इस नायब पक्षी को याद कर लेते हैं,लेकिन हकीकत यही है की घर के मुंडेर और खिड़कियों पर चहचहाकर जीवन में रंग भरने वाली इस चिड़िया का दर्शन कुछ वर्षों के बाद दुर्लभ होगा.

Sunday, August 11, 2013

ताश के बावन पत्ते


 




ताश से हमारा साबका दैनिक जीवन में मनोरंजन के पलों में हमेशा ही होता रहा है.सफ़र के दौरान वक्त बिताने के लिए ,मनोरंजन का बेहतरीन तरीका है ही ,गप्पबाजी के शौकीन लोगों के लिए यह एक नेमत से कम नहीं.

ताश के पत्तों के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित हैं. अपने देश में प्रचलित एक लोक कथा के अनुसार एक महाराजा को अपनी दाढ़ी के बाल उखाड़ने की बहुत बुरी आदत थी. वे खाना खाते उठते बैठते,बात करते ,यहाँ तक कि अपनी रानियों से इश्क फरमाते समय भी अपनी दाढ़ी के बाल नोचा करते थे.उनकी एक रानी बड़ी समझदार थी. कहा जाता है कि उसी ने अपने पति की यह बुरी आदत छुड़ाने के लिए, जो वस्तुतः एक बीमारी की तरह उनसे चिपटी हुई थी , ताश का अविष्कार किया. लेकिन उसने कभी नहीं सोचा होगा कि उसका यह आविष्कार ही बीमारी बन कर लोगों से चिपट जाएगा. आविष्कारक ने अविष्कार तो कर डाला लेकिन वह 'तारक' न होकर 'मारक' सिद्ध हो तो उसका क्या दोष. उस महारानी ने एक काम और भी किया कि ताश के पत्तों की आकृति रोटियों की तरह गोल - मटोल बनाई और कहते हैं कि यही आकृति काफी समय तक प्रचलित भी रही.

एक कहानी के अनुसार इन 'शैतान के बच्चों' का अविष्कार 12वीं  शताब्दी में किसी चीनी सम्राट की बेगमों के मनोरंजन के लिए किया गया था. प्राचीन कल में ज्योतिष - विध्या में भी किसी  प्रकार के पत्तों का अवश्य होता था.

इन कहानियों में कितनी सच्चाई है, इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता,फिर भी इतना तो निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में इटली में ताश के के पत्तों का प्रचलन था और वहाँ इसका नाम 'तारोत' या टैरो  था. यही पत्ते आधुनिक पत्तों के पूर्वज भी कहे जा सकते हैं.'तारोत' या टैरो पत्ते आज भी दिख जाते हैं और लोग प्रायः इनका उपयोग भविष्य बताने में करते हैं. तारोत में चार प्रकार के चिन्ह अंकित रहते हैं - प्याला,खड़ग,रुपया,तथा चिड़ियाँ. प्रत्येक चिन्ह के चौदह पत्ते होते हैं- 1 से दस तक गिनती वाले तथा चार अन्य बादशाह ,बेगम ,सरदार और गुलाम. इतालवी और स्पेनी पत्तों पर अब भी यही चिन्ह अंकित रहते हैं,जबकि जर्मन पत्तों पर,जिनकी संख्या केवल 12 होती हैं -1 से  5 तक  की की गिनती वाले और शाही पत्ते. पान ,घंटियाँ ,बालें और पंक्तियाँ अंकित रहती हैं। इनके अतिरिक्त ऐसे पत्ते भी देखने में आते हैं ,जिन पर मात्र एक ही चित्र अंकित रहता है और एक ओर आमने सामने के कोनों पर गिनती लिखी रहती है.

अपने देश में जो पत्ते प्रचलन में हैं,वैसे ही पत्ते इंग्लैंड में भी देखने को मिलते हैं. इन पर पान,ईट,चिड़िया,और हुकुम अंकित रहते हैं. इन चिन्हों का अंकन सर्वप्रथम एक फ्रांसीसी ने 16 वीं शताब्दी में किया था.इसलिए  शाही पत्तों में ट्यूडर राजाओं की वेशभूषा हमें दिखाई पड़ती है. किन्तु 19वीं शताब्दी के अंत से पहले 'दोमुहें' पत्तों का प्रचलन नहीं था. पहले पत्तों की पीठ खाली रहती थी ,किन्तु दशाब्दियों से इन्हें भी सजाया जाने लगा है और कुछ देशों में यह पीठ विज्ञापन का अच्छा खासा साधन भी बन गयी है.

ताश के पत्तों का संबंध नक्षत्र विद्या से अवश्य है. इसी बात से पत्तों की संख्या 52 निर्धारित होने का कारण भी जाना जा सकता है. कुछ लोगों ने चन्द्र -वर्ष के साथ इसका मिलान भी किया है. इस  तरह 12 शाही पत्ते,वर्ष के 12 महीनों के प्रतीक हैं.काला और लाल रंग दो पक्षों कृष्ण और शुक्ल का प्रतिनिधित्व करते हैं. 52 पत्ते वर्ष के 52 सप्ताह हैं. रंग चार ऋतुएँ हैं. यदि गुलाम को 11, बेगम को 12 और बादशाह को 13 तथा जोकर को एक माना जाये, तो अंकित चिन्हों का योग 365 दिन के बराबर बैठता है.

ताश के पत्तों का शैक्षणिक महत्त्व भी कम नहीं है.फ्रांस के राजा लुई 14 वें को इतिहास और भूगोल की शिक्षा इन्हीं के माध्यम से दी गयी थी. इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय के समय में 52 पत्तों पर इंगलैंड और वेल्स की 52 काउंटियों को अंकित किया जाता था.

चार्ल्स द्वितीय,ऒलिवर क्रोमवेल तथा शेक्सपियर भी इन पर अंकित हो चुके हैं.डी. ला. रयू  द्वारा निर्मित ताश के 'शाही' पत्तों में कुछ ऐतिहासिक व्यक्तित्व अंकित हैं. हुकुम की बेगम हैं - एलिजाबेथ प्रथम, पान के बादशाह हैं चार्ल्स द्वितीय और जोकर बने हैं - ओलिवर क्रोमवेल. ये पत्ते जहाँ एक ओर मनोरंजक हैं ,वहां एक विशिष्ट व्यक्ति द्वारा इन इतिहास पुरुषों के मूल्यांकन के परिचायक भी हैं.