Thursday, January 30, 2014

दिशाशूल : अंधविश्वास बनाम तार्किकता












आज के इस वैज्ञानिक युग में भी बहुत सी ऐसी बातें हैं,जो समाज में प्राचीन काल से प्रचलित रही हैं और अब भी अंधविश्वास की श्रेणी में ही गिनी जाती हैं.इन्हीं में से एक है – दिशाशूल.
एक समय विशेष में दिशा-विशेष की यात्रा करने की बात को या मुहूर्त इत्यादि में विश्वास को आज का तथाकथित आधुनिक समाज अंध-विश्वास  की श्रेणी में ही गिनता है.परन्तु ऐसे तथाकथित अंधविश्वासों का आधुनिक युग में वैज्ञानिक विश्लेषण हो रहा है.यह बात बहुत ही आश्चर्यजनक है कि उन तथाकथित अंधविश्वासों को वैज्ञानिक मान्यता प्राप्त हो रही है.

पैरा-साइकोलोजी (परा-मनोविज्ञान) तथा मेटाफिजिक्स जैसे विषयों के अंतर्गत विज्ञान की इन नवीन शाखाओं में वैज्ञानिक प्रयोग हो रहे हैं तथा अब वे तथ्य जिन्हें आश्चर्यजनक माना जाता था या जिनको अंधविश्वासों की श्रेणी में रखकर उपहास उड़ाया जाता था,वैज्ञानिक धरातल पर खरे उतर रहे हैं.दिशाशूल के विषय में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार जिस दिशा में,जिस समय या वार में दिशाशूल को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी,उस दिशा में,उस समय में अपेक्षाकृत अधिक दुर्घटनाएं हुई हैं.कुछ दुर्घटनाओं को तो पहचानना भी मुश्किल रहा है कि मानव-त्रुटि के कारण हुईं या उनके पीछे कोई और प्राकृतिक या वैज्ञानिक कारण था.

ऐसा ही एक तथाकथित अंधविश्वास है,दक्षिण दिशा की ओर पैर करके न सोया जाए.हमारे समाज में यह धारणा प्रचलित रही है कि रात के समय में दक्षिण दिशा में पैर करके सोना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक,साथ ही रोग वृद्धि,धन-नाशक तथा चित्त विक्षिप्तता का कारण है.परन्तु आज के वैज्ञानिक युग में इसे कोरा अंधविश्वास ही समझा जाएगा.यदि इस अंधविश्वास का वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया जाए तो तथ्य अवश्य सामने आते हैं.

हमारा शरीर केवल वही नहीं है जो भौतिक दृष्टि से दिखाई देता है.इसी शरीर में ऐसी अद्भुत आश्चर्यजनक शक्तियां भी हैं,जिनको वश में करके संसार को आश्चर्यचकित एवं भ्रमित किया जा सकता है.इनमें से एक अदृश्य शक्ति है विद्युत.योगशास्त्र तथा तंत्रशास्त्र में इस शक्ति को वश में करने के कई उपाय दिये गए हैं.साधक भी आश्चर्यमयी शक्तियों का ज्ञाता बन सकता है,जैसे वशीकरण की शक्ति.हिप्टोनिज्म या मेस्मरिज्म आज के युग में नया शब्द नहीं है.इन साधनाओं में भी विद्युतशक्ति को मान्यता प्राप्त है.

इस विद्युत शक्ति को साधारणतया दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – धन-विद्युत तथा ऋण-विद्युत.धन विद्युत का निवास हमारे शरीर के ऊपरी भाग में रहता है.अर्थात् सिर,नाक,कान,आँख,गला आदि में.ऋण विद्युत का निवास हमारे शरीर के निचले भाग में रहता है.मध्य भाग में दोनों विद्युत शक्तियों का समन्वय होता है.इस मध्य-भाग में योगी षट्चक्रों की स्थिति को भी मानते हैं जो सर में तालू तक फैले रहते हैं.

प्राचीन आचार्यों ने इस विद्युत-शक्ति का सर्वाधिक प्रभाव दो छोरों पर माना है,वे दो छोर हैं-1.उत्तरी ध्रुव 2.दक्षिणी ध्रुव. दक्षिण दिशा में ऋणात्मक विद्युत सक्रिय रहती हैं तथा उत्तर दिशा में धनात्मक विद्युत.ये दो बिंदु ही चुम्बकीय बिंदु हैं.इन बातों को ध्यान में रखकर हम इस बात का विश्लेषण करें कि  दक्षिण-दिशा में पैर करके सोने से क्या हानि है तो कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं. चुम्बक के भी दो सिरे होते हैं.यदि दो चुम्बक ले लिए जाएं और उनके सम-सिरों को एक दुसरे के सम्मुख रखा जाए तो वे आपस में आकर्षित होने के बजाए इस स्थिति में आ जाते हैं कि उनके दोनों सिरे सम नहीं रहते हैं.अर्थात् उत्तरी ध्रुव कभी भी दक्षिणी ध्रुव की तरफ आकर्षित नहीं होता अपितु उत्तरी ध्रुव की तरफ आकर्षित होता है.

तात्पर्य यह है कि दो समानधर्मा बिन्दुओं में प्रतिरोध या तनाव की स्थिति रहती है.ऐसा तभी होता है,जब हम दक्षिण दिशा में पैर करके सोते हैं.पैरों में भी ऋणात्मक विद्युत शक्ति सक्रिय होती है जो सोते समय,शक्ति के व्यय न होने के कारण और भी सक्रिय हो जाती हैं.दक्षिण दिशा में भी यही ऋणात्मक विद्युत सक्रिय रहती है.रात को सोते समय यह ऋणात्मक विद्युत एक-दूसरे के सम्मुख हो जाती हैं और फलस्वरूप चुम्बक वाली प्रक्रिया आरंभ हो जाती है.आपसी विरोध के कारण इन विद्युत-धाराओं का प्रभाव हमारे तन,मन तथा बुद्धि पर पड़ता है और इनका प्रभाव हमारे सूक्ष्म शरीर तथा आत्मा पर पड़ता है.इसके फलस्वरूप तनाव की स्थिति प्रारंभ हो जाती है,जो हमारे पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है.

इस प्रकार जिस बात को हम केवल अंधविश्वास कहकर टाल जाते हैं उसका हमारे व्यक्तित्व से बहुत गहरा संबंध है.इस तथाकथित अंधविश्वास की अवहेलना के अनेक तात्कालिक परिणाम हो सकते हैं,जैसे नींद का न आना,या नींद देर से आना,सोते समय चिंताओं का घेरे रहना,अधिक स्वप्न आना या दु:स्वप्न आना.आधुनिक समाज में बढ़ रही ये असामान्य बीमारियाँ केवल इस बात को ध्यान में रखकर सुलझाई जा सकती हैं.

अंततः यह कहा जा सकता है कि जिन बातों को हम केवल अंधविश्वास कहकर टाल जाते हैं,उनके पीछे भी सूक्ष्म-विज्ञान काम कर रहा होता है.इसलिए यदि आप दक्षिण दिशा में पैर करके सोते हैं और नींद न आने या देर से आने जैसी तथाकथित बीमारी से ग्रस्त हैं तो आप आज रात से ही अपने पैरों का रुख बिस्तर पर लेटते समय दूसरी दिशा में मोड़ दें.इससे वांछित परिणाम मिल सकते हैं.

Thursday, January 23, 2014

स्वर्णयोनिः वृक्षः शमी

    











वैदिक काल से भारत के कम जलवाले मरू क्षेत्रों में बहुलता से उगने वाला शमी वृक्ष अनेकों धार्मिक,सामाजिक,आर्थिक एवं पर्यावरण संबंधी गाथाओं का साक्षी एवं प्रणेता रहा है.यही वह वृक्ष है जिसमें अग्निदेव का वास रहता है और अग्नि मानवता के विकास की प्रथम सीढ़ी है.अग्नि का सर्व हितकारी भाव रहता है,अतः यह वृक्ष भी सर्वहितकारी भाव रखते हुए विपरीत परिस्थितियों में भी दीर्घायु एवं सामाजिक दृष्टि से संगठन एवं शक्ति का प्रतीक है.

राजस्थान में इसे खेजड़ी,गुजरात में समी,संस्कृत में शमी,दिल्ली में जांडी एवं चौकसा,पंजाब-हरियाणा में थांड,मध्य-प्रदेश में बन्नी,कर्नाटक में पेरुम्बाई एवं वानस्पतिक नाम प्रोसोपीस साईनियेरा के नाम से जाना जाता है.

शमी में अग्नि का वास होने से वैदिक काल से ही यज्ञ के लिए अरणी मंथन क्रिया द्वारा इसकी मोटी टहनियों को रगड़कर अग्नि प्रज्वलित की जाती रही है.आज भी पारंपरिक वैदिक पंडित यज्ञ में अग्नि आमंत्रण अरणी मंथन द्वारा ही करते हैं.स्वर्ण अग्नि का वीर्य है और अग्नि का वास इस वृक्ष में होने से यह स्वर्ण उगलता है,ऐसा विश्वास किया जाता है.रघुवंश में भी इस बारे में रोचक कथा का वर्णन मिलता है.प्राचीन काल में गुरुकुल शिक्षा की पूर्णता पर शिष्य द्वारा गुरु दक्षिणा भेंट करना अति आवश्यक था.गुरु आरुणि के आश्रम में एक बार निर्धन परिवार से कौस्तेय नामक शिष्य आया.शिक्षा पूर्ण होने पर उसने गुरुदेव से दक्षिणा के लिए आग्रह किया.शिष्य की स्थिति को जानते हुए गुरु ने सहर्ष गुरुकुल छोड़ने की आज्ञा प्रदान की,लेकिन कौस्तेय अड़ा रहा कि उससे गुरु दक्षिणा ली जाए.

गुरु आरुणि ने आवेश में उससे दास लाख स्वर्ण मुद्राएं गुरु दक्षिणा के रूप में मांग लीं.इतनी अपुल राशि का अर्जन तो उसके लिए असंभव था,अतः उसने राजा रघु के पास जाने का निश्चय किया.राजा रघु प्रत्येक बारहवें वर्ष अपना समस्त राज्य-कोष,स्व एवं पत्नी के वस्त्राभूषण भी प्रजा को दान कर देते थे और सादा जीवन बिताते थे.सरल जीवन एवं उनके तप के प्रभाव से राज्यकोष पुनः स्वर्णपूरित हो जाता था.उस समय राजा रघु अपना सर्वस्व दान कर सादा जीवन व्यतीत कर रहे थे.

कौस्तेय राजा रघु के दरबार में पहुंचा लेकिन वहां की स्थिति जानकार अभिप्राय बताने में संकोच का अनुभव हो रहा था.राजा रघु द्वारा बार-बार पूछने पर कौस्तेय ने अपने आने का उद्देश्य बताया.राजा रघु ने दक्षिणा के लिए पूर्ण आश्वासित किया और धनपति कुबेर पर आक्रमण करने का निश्चय किया.यात्रा में रात्रि में एक वन में रुके.यह शमी का वृक्ष था.इसी अंतराल कुबेर को ज्ञात हो गया कि राजा रघु एक शिष्य की गुरु दक्षिणा के लिए आक्रमण हेतु राह में है.उसी रात्रि शमी वृक्षों के सारे पत्ते स्वर्ण मुद्रा में परिवर्तित हो गए और सारा वन स्वर्ण आभा से जगमगा उठा.प्रातः राजा रघु को इसकी जानकारी मिली.आक्रमण का विचार निरस्त कर उन्होंने कौस्तेय को गुरु दक्षिणा के लिए अनुरोध किया.कौस्तेय ने गिनकर दास लाख स्वर्ण मुद्रा ली और गुरु दक्षिणा अर्पित की.अपुल धन राशि  से राजा रघु का राज्य कोष पुनः स्वर्ण पूरित हो गया.

विजयादशमी के आस-पास घटी इस घटना के कारण आज भी अनेक राज-परिवारों में इस वृक्ष की पूजा विजयादशमी पर की जाती है.बंगाल में दुर्गापूजा पर शमी वृक्ष की पत्तियां स्वर्ण प्रतीक रूप में परस्पर सद्भावना के लिए वितरित की जाती हैं.इन्हें पूजा घर,तिजोरी में शुभ प्रतीक के रूप में रखा जाता है.इसकी पवित्रता एवं महत्व को जानते हुए पांडवों ने अज्ञातवास में इसी वृक्ष की घनी पत्तियों के बीच में अपने दिव्यास्त्र छिपाए थे,क्योंकि इन्हें पूर्ण विश्वास था कि पवित्र वृक्ष होने के कारण कोई इसे नहीं काटेगा और दिव्यास्त्र सुरक्षित रहेंगे.

भगवान शिव,देवी दुर्गा,लक्ष्मी पूजन आदि में इस वृक्ष के फूल एवं ऋद्धि-सिद्धिदाता गणेश को पत्तियां अर्पित की जाती हैं.इस वृक्ष की मोटी टहनियां अरणी मंथन द्वारा अग्नि उत्पन्न के लिए प्रधान यंत्र के अलावा पतली-सूखी टहनियां भी यज्ञ समिधा का भाग होती हैं.भगवान राम ने अपने वनवास के समय जिस झोपड़ी का निर्माण किया था उसमें शमी वृक्ष की लकड़ियों का ही उपयोग किया गया था.

खेजड़ी के वृक्ष में फलों के रूप में फलियाँ लगती हैं जिन्हें सांगरी कहा जाता है.इनकी स्वादिष्ट सब्जी एवं अचार बनाया जाता है.सांगरी खाने से गर्मियों में प्यास कम लगती है.राजस्थान में सांगरी के साथ कैर की सब्जी एवं कढ़ी बनायी जाती है जो कि मरू प्रदेश में विशिष्ट आतिथ्य के रूप में अतिथि सत्कार का भाग है.

खेजड़ी का औषधीय महत्व भी कम नहीं है.ऐसा कहा जाता है कि जिस प्रदेश में खेजड़ी,नीम एवं आक के पेड़ पाए जाते हैं, वहां कोई बीमारी असाध्य नहीं है.खेजड़ी की फलियाँ पौष्टिक,शीतल एवं ह्रदय रोगों के लिए हितकारी है.फूलों का रस चीनी की चासनी के साथ महिलाओं से संबंधित रोगों में हितकारी है.इसकी फलियाँ वायु रोग,सूजन संबंधी रोगों में तुरंत आराम देती हैं.

खेजड़ी पशु जीवन के लिए वरदान है.इसकी हरी पत्तियों में 60 प्रतिशत तक नमी पायी जाती है.ये पत्तियां ऊंट,भेड़ एवं बकरी का प्रमुख भोजन है.इनमें लोहा,जिंक एवं मैग्नेशियम जैसे महत्वपूर्ण तत्वों की मात्रा सर्वाधिक होती है.खेजड़ी की फली एवं पत्तियों में वसा एवं प्रोटीन की 40-50 प्रतिशत मात्रा  होती है. यह भोजन,ईंधन,निर्माण कार्य एवं प्राकृतिक सीमा के साथ-साथ तेज गर्मियों में पशुओं को छाया प्रदान करता है.

इसकी जड़ों में छोटी-छोटी गांठ होती है जो नाईट्रोजन एकत्रित कर जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है.जिस खेत में खेजड़ी के वृक्ष ज्यादा होते हैं,वहां ज्यादा उपज होती है.कम जल वाले वीरान मरू क्षेत्रों का यह मरू प्रहरी एवं राजस्थान के के मरू क्षेत्र वासियों की जीवन रेखा या कल्पतरु है.यह हानिकारक गैसों का अवशोषण करने की शक्ति रखता है.रेगिस्तान में चलने वाली तेज तूफानी वेग को कम करते हुए मिटटी के अपक्षय को रोककर,हवा से उड़कर आने वाली रेत को भी रोक कर जमा देता है.

यह वृक्ष संकटकालीन परिस्थितियों से उबरने वाला प्रकृति द्वारा दिया गया प्रत्येक ग्रामीण के लिए एक छोटा बैंक है.इसकी आय पत्तियों द्वारा अर्जित है.फलियाँ,बीज,लकड़ी भी आय के प्रमुख भाग हैं.इस प्रकार पौराणिक गाथाओं में स्वर्ण मुद्रा में परिवर्तित हुई हर पत्ती वर्तमान युग में भी स्वर्ण मुद्रा ही है,आवश्यकता है केवल संरक्षण एवं संवर्द्धन की.

Monday, January 13, 2014

मकर संक्रांति और मंदार

मंदरांचल का विहंगम दृश्य 
मंदरांचल पर्वत अति प्राचीन काल से ही वर्तमान बौंसी की तपोभूमि पर समाधिस्थ है.बौंसी का प्राचीन नाम ‘वालिशानगरी’ था,जिसे कुबेर के पुत्र हेमेन्द्र ने अपनी माँ की स्मृति में बसाया था.वर्तमान बिहार के भागलपुर प्रमंडल के बांका जिला अंतर्गत बौंसी प्रखंड में मंदारहिल रेलवे स्टेशन से तीन किलोमीटर की दूरी पर उत्तर में मंदार पर्वत अवस्थित है. 

चीर और चांदन नदी के मध्य अवस्थित मंदरांचल,जिसे आज हम मंदार पर्वत कहते हैं, पुरातन धर्मग्रंथों के अनुसार सागर मंथनोपरांत सृष्टि की प्रक्रिया में इसका योगदान श्रेष्ठ रहा है.मंदरांचल के दोनों ओर बहने वाली चीर और चांदन नदी यहाँ से 50 किलोमीटर दूर प्रवाहित पुण्यसलिला गंगा की ही उपनदियाँ हैं.इन्हीं उपनदियों के कारण मंदरांचल की पहचान की गई है.इन उपनदियों का वर्णन वृहद् विष्णुपुराण में इन शब्दों में की गई है.......

चीर चांदनर्योमध्ये मंदारो नाम पर्वतः |
तस्या रोहन मात्रेण नरो नारायणो भवेत् ||

विष्णु अवतार भगवान मधुसूदन के एकमात्र मंदिर तथा मंदार पर्वत के लिए बिहार का यह बांका जनपद पहचाना जाता है.पुरातत्ववेत्ताओं ने इस बात की पुष्टि की है कि यह पर्वत नगाधिपति पर्वतराज हिमालय से भी वृद्ध है.

    
पापहरणी सरोवर के मध्य भव्य अष्टकमल  मंदिर 


समुद्र मंथन की आकृति 












बौंसी के मधुसूदन मंदिर का मकर-संक्रांति पर्व हमारे धार्मिक पर्वों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.यह महापर्व है जो पूरे वर्ष में एक बार ही आता है.इस पर्व के लिए सूर्य का सतभिषा नक्षत्र में होना आवश्यक है.मकर संक्रांति फलित ज्योतिष के अनुसार एक लग्न होता है.खगोलशास्त्र के अनुसार मकर-संक्रांति वह लग्न है,जब दक्षिणी गोलार्द्ध में सूर्य लंब रूप से मकर रेखा पर रहता है.इसे शीत सम्पात भी कहा जाता है.
                                                             
वाल्मीकीय रामायण,रामचरितमानस,स्कन्दपुराण,युद्धपुराण,वृहद् विष्णुपुराण,गरूड़ पुराण,गणेश पुराण,शतपथ ब्राह्मण,अमरकोष,कुमार संभवम्,श्री श्री चैतन्य चरितावली के अलावा,उत्तर मध्यकाल के स्वनामधन्य कवि भूषण ने भी मंदरांचल की चर्चा की है.
मधुसूदन मंदिर में भगवान मधुसूदन 

बौंसी स्थित मधुसूदन मंदिर 















मंदरांचल से 5 किलोमीटर की दूरी पर बौंसी अवस्थित है,जहाँ इस समय भगवान मधुसूदन का मंदिर है.वाल्मीकीय रामायण के सुंदरकाण्ड में महर्षि ने कई स्थानों पर इस पर्वत की चर्चा की है....

या भांति लक्ष्मिर्भुविमंदरस्था
यथा प्रदोषेषु च सागरस्था |
तैयव तोयेषु च पुष्करस्था
राज सा चारू निशाकस्था ||
हंसो यथा राजत पंजरस्थः
सिंहो यथा मंदर कंदरस्थः ||

‘मंदरांचल’ मंदार या मंदर शब्दों से बना है.रामचरित मानस में मंदार के हाथ तथा पंख इन्द्र द्वारा काटे जाने की चर्चा है.कहा जाता है कि प्रथम पूज्य गणपति ने ‘मंदर’ की तपस्या के वशीभूत होकर इस पर्वत का नाम मंदार रख दिया.

पौराणिक कथाओं से विदित होता है कि सृष्टि निर्माण हेतु सागर मंथन में इसी पर्वत को धुरी बनाकर बासुकी नाग को मंथन दंड के रूप में प्रस्तुत किया गया.यह भी कि मंदरांचल के ऊपर भगवान मधुसूदन स्वयं विराजते हैं.बताया जाता है कि मंदार शीर्ष पर अवस्थित मंदिरों में भगवान मधुसूदन की ही पूजा होती थी.

भास्कर कृपा से आलोकित एवं भगवान मधुसूदन की शक्ति से आभूषित यह नगरी प्राचीन काल में मणि-माणिक्यों,रत्न जड़ित स्वर्णकलशों से विभूषित प्रासादों,मंदिरों,उद्यानों,विपणियों तथा जलाशयों से शोभित थी.इसे सृष्टि निर्माण स्थली भी कहा गया है.क्षौर महातीर्थ की विशिष्टता से भी यह स्थल विदित है.काशी को भी क्षौर महातीर्थ कहा गया है.कहा जाता है कि क्षौर महातीर्थ से होकर भागीरथी नहीं गुजर सकती,लेकिन काशी इसलिए अपवाद है कि यह नगरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिकी है.

संस्कृत साहित्य ने तो मंदरांचल के अतीत को वैभव का अमरत्व दिया है.वेदव्यास,वाल्मीकि,तुलसीदास, जयदेव,कालिदास जैसे विद्वानों ने अपनी लेखनी से ‘मंदर’ या ‘मंदरांचल’ को चिर अमरत्व प्रदान किया है.वहीँ भूषण जैसे रीति काल के कवि ने भी अपने काव्य में कहा है ......

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहातीं हैं |

योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जैसे महान योगियों की परम भूमि यही मंदार रही जिनके द्वारा यहाँ स्थापित गुरुधाम आज भी प्रेरणास्रोत बनकर लोगो को एकत्ववाद का पाठ पढ़ा रहा है.इनके प्रिय शिष्य भूपेन्द्र नाथ सान्याल थे.इनके द्वारा स्थापित एक अन्य आश्रम जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) में भी है.

जैन धर्म के बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य की निर्वाण स्थली यही मंदार रही.चंपापुरी एवं मंदरांचल का वर्णन ‘भगवती सूत्र’ (जैनग्रंथ) में भी है.आज भी प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में जैन धर्मावलम्बी यहाँ आते हैं.समय-समय पर यहाँ शाश्वत सत्य अपने-अपने दृष्टिकोण से विवेचनाएं करते रहे हैं.इन्हीं विभिन्न दृष्टिकोणों में ‘सफाधर्म’(सनातन मत की एक शाखा) को जन्म दिया और पल्लवित-पुष्पित भी किया.

वनवासी समुदाय के सफा धर्मावलम्बियों का मकर संक्रांति और मंदार से गहरा संबंधहै.  बिहार,झारखंड,उड़ीसा और बंगाल के इलाकों से सफा धर्मावलम्बी मंदार पहुँचते हैं.मकर संक्रांति के दो दिन पूर्व से ही उनका जुटान मंदार की तलहटी में शुरू हो जाता है.आधी रात जब ठंढ अपने चरम का लबादा ओढ़े रहता है,ये मरांग गुरु और जय मंदार का जयघोष करते हुए पवित्र पापहरणी में कूद पड़ते हैं.पवित्र पापहरणी के स्नान का सिलसिला लगातार जारी रहता है.स्नान के बाद दो दिनों तक उनका पर्वत की तलहटी में ध्यान-साधना और पूजन-अनुष्ठान की लम्बी प्रक्रिया चलती रहती है.मंदार के आस-पास का इलाका वनवासी के बसेरे से गुलजार हो जाता है.जानकारी के मुताबिक,ये सफा स्वामी चंदर दास के शिष्य हैं.पर्वत एवं पापहरणी के बीच उनका मंदिर भी करीब सौ साल पुराना बताया जाता है. 

मंदरांचल की इस पुण्य भूमि ने चरम विकास और ह्रास के जाने कितने काल प्रधान, अचल-अटल सत्य देखे.जैसे-प्रद्योत काल,शुंग काल,शक,सातवाहन काल,मौर्य काल,गुप्त काल और मुग़ल काल होते हुए आधुनिक काल.

यहाँ के प्रसिद्द एवं दर्शनीय स्थल –मंदरांचल,पौराणिक शीर्षस्थ मधुसूदन मंदिर,राम झरोखा,पांचजन्य शंखकुण्ड,नरसिंह गुफा,त्रिशिरा मंदिर के अवशेष,पुष्करणी सरोवर,लखदीपा मंदिर के अवशेष,सफाधर्म मंदिर, बौंसी स्थित मधुसूदन मंदिर आदि प्रमुख हैं.

मंदार विद्यापीठ पर्वत के पूर्व में अवस्थित है.इस ओर से पर्वतराज  का अवलोकन करने पर एक ही पत्थर से निर्मित प्रतीत होता है.इसकी पुष्टि भी स्वतः दर्शनोपरांत हो जाती है.इस पर्वत की सबसे बड़ी विशेषता यही है.
पर्वत आधार में पुष्करणी(पापहरणी) कुण्ड है.किवदंती है कि इसमें स्नान के फलस्वरूप चोल राजा छत्रसेन चर्म रोग से मुक्त हो गए थे. पुरातत्ववेत्ता राखाल दास बनर्जी का मानना है कि इस सरोवर का निर्माण राजा आदित्यसेन की धर्मपत्नी रानी कोण देवी ने 7 वीं शताब्दी में कराया था.

प्रतिवर्ष मकर-संक्रांति तथा रथयात्रा के अवसर पर भगवान मधुसूदन को बौंसी स्थित मंदिर से इस पुष्करणी सरोवर में स्नानार्थ लाया जाता है.पहले इन्हें गजारूढ़ कर लाया जाता था.तदुपरांत,मधुसूदन फगडोल पर इन्हें रख कर  पूजा -अर्चना किये जाने की परंपरा अब भी है.पर्वत के मध्य में एक शंक्वाकार कुण्ड है.इसमें 6 सौ मन यानि सवा छब्बीस हजार किलोग्राम वजन का शंख है.वजन का प्रमाण कहीं-कहीं लिखा है.1920-25 एवं 1985-86 के बीच कुण्ड को साफ़ किये जाने के उपरांत इस शंख को देखा गया.इसे पांचजन्य शंख कहा गया है.नील वर्ण का यह शंख वास्तव में भारतीय शिल्प कला का उत्कृष्ट नमूना है.

पौराणिक प्रसंगानुसार मंदार को धुरी बना कर नागराज बासुकी को मंथन दंड बना कर देवों और असुरों ने कामधेनु(गाय),उच्चेश्रवा(घोड़ा),ऐरावत(हाथी),कौस्तुभमणि,कल्पद्रुम,रम्भा,वारूणी,पारिजात,चंद्रमा,लक्ष्मी, मदिरा, विष,अमृत और शंख जैसे रत्न प्राप्त करने के लिए सागर मंथन किया.श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध में वर्णित है.

एक अन्य प्रसंग दैत्य बंधु मधु-कैटभ के वध से संबंधित है.कैटभ का वध कुछ प्रयास से सफल तो हुआ,लेकिन मधु से भगवान विष्णु को लम्बे समय तक युद्ध करना पड़ा.तभी से भगवान 'मधुसूदन' हो गए. 

विद्वानों ने एक ही पत्थर से निर्मित तथा स्तूपरूप में अवस्थित इस सृष्टि तत्व पूर्वज को बौद्ध से जुड़े होने की भी संभावनाएं जुटायी हैं.बौद्ध ग्रंथ 'ललित विस्तार' एवं 'अंगुत्तर निकाय' में इसकी चर्चा की गई है.खुदाई के उपरांत इस पर्वत पर प्राप्त शिव की एक प्रतिमा बुद्ध मंडल की आभा लिए हुए है.इस बात की पुष्टि होती है कि यह क्षेत्र बौद्ध मत से भी किसी न किसी रूप में जुड़ा रहा है.

इस पर्वत पर रात्रि काल में कई व्यक्तियों ने यदा-कदा अलौकिक शक्ति वाले धवल वस्त्रधारी साधुओं को भी देखा है.क्षौर महातीर्थ होने के कारण यह स्थल शक्ति के प्रतीकात्मक स्वरूप में देखा जाता है.कामख्या योनिकुण्ड में तांत्रिक साधना भी की जाती है.अर्थात शक्ति की पराकाष्ठा यहाँ अपरिमित रही है.

प्रकृति के परम प्रसारण को मनीषियों ने धार्मिकता से जोड़ दिया ताकि मानव का संबंध प्रकृति के साथ जुड़ा रह सके.धर्मं का अर्थ ही है,प्रकृति से जुड़ना,जो हमारा परमात्मा है,अद्वितीय है,और वही हमारा ध्येय है.किंतु कुटिल लोगों ने धर्म को अन्धविश्वास से जोड़कर मानवता का बहुत अहित किया है.

आज हम प्रकृति से बहुत दूर होते जा रहे हैं,इतनी कि प्रकृति का विध्वंस करने में थोड़ा भी नहीं हिचकते.यही कारण है कि मानव अधिकतर मनोरोगी,क्रूरभोगी हो गया है.आज हम देवालय में दर्शनार्थ नहीं जाते,केवल ईश्वर से धन-वैभव की याचना करने जाते हैं.

दर्शनार्थी परम सत्ता से अपना सामंजस्य जोड़ने की इच्छा से यदि यहाँ आयें,आत्मज्ञानार्थ आयें तो उन्हें अवश्य लाभ प्राप्त होता है.प्रभु दर्शन आने वाले दर्शनार्थियों के लिए 22 कोटि देवताओं की यह शरण स्थली आज भी मोक्षदायिनी है.यह अन्धविश्वास से हटा कर मन को परमात्मा से जोड़कर सहिष्णुता एवं करूणा को जगाने के लिए जागृत स्थान है.

Thursday, January 9, 2014

सांझी : मिथकीय परंपरा

           











संजा किशोरियों का लोकप्रिय त्यौहार है,साथ ही लोककला का श्रेष्ठ समायोजन.सावन के सुहाने मौसम की बहार छा जाने के बाद ही यह त्यौहार अपनी पूरी रंगीनियाँ बिखेरता आता है.बाग़-बगीचों,खेत-खलिहानों में तरह-तरह के फूल खिल जाते हैं.नदियों का जल निर्मल हो जाता है,तब किशोरियों का यह उमंग भरा त्यौहार  आ जाता है.

सोलह दिन बनने वाले भित्तिचित्र संजा और बालिकाओं के कोमल कंठों से फूटते गीतों का समागम देश के मध्यप्रदेश,राजस्थान,ब्रज,मिथिला,पंजाब और हरियाणा के गाँव और शहरों की गलियों को रंगीन वीथिका बना देता है.

किशोरियां भाद्र मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक,पितृपक्ष में सोलह दिनों तक अपने-अपने घरों की भीत पर आंचलिक विशेषताओं के साथ गोबर-मिट्टी से विविध आकृतियों का सृजन करती हैं.आकृतियों को फूलों,रंग-बिरंगी पन्नियों से,कौड़ियों से सजाती-संवारती हैं.सांझी की विभिन्न तिथियों के लिए पूर्व परंपरा के अनुसार प्रायः निश्चित आकृतियों का अंकन किया जाता है.कन्याएं सुंदर वर,चिर सौभाग्य और सुखी दांपत्य जीवन की कामना से प्रति दिन संध्या समय सांझी का पूजन,आरती करती हैं और गीत गाती हैं.कविता,गीत,संगीत और रूपंकर कलाओं का सुंदर संगम इस बहुआयामी संजा पर्व में परिलक्षित है.यह भित्ति अलंकरण कला और गीति पर्व भी है और आनुष्ठानिक आयोजन भी.

सांझी पर्व के माध्यम से किशोरियां अपनी कोमल भावनाओं,कल्पनाओं को अभिव्यक्त करती चली आ रही हैं.सचमुच संजा पर्व चित्रकला की पाठशाला है,जहाँ बालिकाएं प्रथम बार चित्रकला को समझने एवं चित्रों के सृजन के लिए उन्मुख होती हैं.

लोकांचलों में सांझी को संज,सांजुली,सांज्ञाफूली और संझया आदि कई नामों से जाना जाता है.भारतीय लोक में सांझी के उद्भव और विकास से संबंधित कई जन-श्रुतियां,मिथक वाचिक परंपरा में आज भी सुरक्षित है.विद्वानों ने भी सांझी को कई रूपों में समझा है.कोई इसे सांझ-संध्या का द्योतक मानते है,तो कोई ब्रह्मा की कन्या संध्या से इसका संबंध जोड़ते हैं.कोई इसे दुर्गा,पार्वती के रूप में आदि शक्ति का अवतार मानते हैं.

कुछ लोग इसे विष्णु-पत्नी लक्ष्मी के रूप में स्वीकार करते हैं,तो कोई ब्रज की देवी मानता है.कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने राधा को प्रसन्न करने के लिए शरदकाल में एक दिन सायंकाल एक सुंदर कलाकृति बनायीं थी.जो संध्या समय निर्मित की जाने के कारण सांझी नाम से विख्यात हुई.

हरियाणा में प्रचलित लोककथा के अनुसार सांझी एक जुलाहे की लाड़ली बेटी थी.विवाहोपरांत उसके पति ने उसे एक लड़का होने पर उसे घर से बाहर निकाल दिया.वह रात-दिन एक करके सूत कातती,खद्दर बुनती और उसे बेचकर अपना और बेटे बसंता का पेट भरती.अवसर मिलते ही वह कुंवारी लड़कियों को अपना ज्ञान बांटती,जो उसने विद्वानों से सीखा था,किंतु यह पुण्य कार्य भी उसकी ससुराल वालों को सहन नहीं हुआ.वे उस पर अत्याचार करने हेतु ताक में रहते थे.एक बार सांझी ससुराल वालों की यातनाओं से तंग आकर अपने बेटे को लेकर अपने पिता के पास आ रही थी.बीच राह में ही उसके ससुराल वालों ने बेरहमी से पीटकर उसे मार डाला.रोती बिलखती उसकी भक्तिनों ने उसके शव को जल में प्रवाहित कर दिया.मान्यता है कि तभी से सांझी-पूजन और विसर्जन का प्रारंभ हुआ.

शिव महापुराण में वर्णित कथा के अनुसार सांझी को ब्रह्मा की मानसी कन्या माना गया है.पहले आदि प्रजापति ब्रह्मा ने दक्ष,मरीचि,पुलह आदि दस प्रजापतियों को उत्पन्न किया.उसी समय उनके मन से एक अपूर्व सुंदरी कन्या उत्पन्न हुई.कन्या को देख ब्रह्मा और प्रजापतियों के मन में सृष्टि बढ़ाने का विचार उठा.यह विचार करते हुए उनके ह्रदय से अद्भुत सौन्दर्यवान कामदेव उत्पन्न हुआ.जिसे देख प्रजापतियों के मन विचलित हो उठे.कामदेव ने ब्रह्मा को प्रणाम करके कहा मुझे ऐसे कर्म में नियोजित करें,जिससे मैं पुरुषों को प्रिय और माननीय रहूँ.

ब्रह्मा ने उसे अपने सम्मोहक रूप से स्त्रियों को सम्मोहित करते हुए सनातनी सृष्टि करने का निर्देश दिया.प्रजापतियों ने कहा कि तुमने अपने सम्मोहन से पहले ही हमारा और ब्रह्मा जी का चित्त मथ दिया है,इसलिए तुम्हारा नाम ‘मन्मथ’ होगा.अपूर्व सौंदर्य के कारण ‘काम’.यह सुंदर कन्या संध्या समय ध्यान करते हुए ब्रह्माजी के मन में उत्पन्न हुई है.यह दिवसांत की शोभा सदृश सुंदर है,अतः यह संसार में ‘संध्या’ नाम से जानी जाएगी.कामदेव ने ब्रह्मा और अन्य प्रजापतियों पर अपने सम्मोहन की जांच की,जिससे ब्रह्मा सहित सभी प्रजापति संध्या की इच्छा करने लगे.धर्म के आह्वान पर भगवान शिव ने प्रकट होकर सभी को धिक्कारा.

काम-प्रसंग से संध्या को बहुत ग्लानि हुई.मुझे देखकर मेरे पिता और भाई काम के वशीभूत हुए.मैं तपस्या कर संसार में मर्यादा स्थापित करूंगी.संध्या ने चंद्रभाग पर्वत पर जाकर मौन तपकर भगवान शंकर को प्रसन्न किया,वे प्रकट हुए.तब संध्या ने कहा,यदि मेरे पाप नष्ट हो गए हैं,यदि मैं योग्य हूँ तो मुझे तीन वरदान दीजिए.इस संसार में कोई भी प्राणी जन्म से ही काम भाव से युक्त न हो.मेरे सदृश इस संसार में विख्यात व्रत वाली दूसरी न हो और मेरा पति महाकामी न हो,मित्रवत हो.उसके सिवा जो भी मुझे काम भाव से देखे वह पुरुषार्थहीन हो जाए.भगवान शंकर ने उसे पवित्र घोषित करते हुए उसके वर के अनुसार संसार में मर्यादा स्थापित करते हुए कहा कि कोई भी शरीरधारी जन से ही कामी नहीं होगा.तेरा पति महातपस्वी होगा और तेरे साथ सात कल्प पर्यंत जीवित रहेगा.

शिव से वर पाने के बाद संध्या ने मेघातिथि मुनि के यज्ञ में अपने उपदेष्टा को पति के रूप में पाने की कामना मन में लेकर अपना दूषित शरीर भस्म कर डाला.मानवीय भौतिक शरीर से वह यज्ञ से उत्पन्न हो मेघातिथि मुनि की कन्या हुई.धर्म का अवरोध न करने के कारण अरूंधति नाम पाया और वशिष्ठ जी ने वरण किया किंतु संध्या की अद्वितीयता की रक्षार्थ शिव की आज्ञा से अग्नि ने संध्या का शुद्ध शरीर लेकर सूर्यमंडल में प्रवेश किया.सूर्य ने उसके शरीर के दो भाग कर अपने रथ पर स्थापित किया.शरीर का ऊपरी भाग देवों को प्रिय ‘प्रातः संध्या’ और नीचे का भाग पितरों को प्रिय ‘सायं संध्या’ हुआ.

यह पुराण कथा ब्रह्मा की मानसी कन्या संध्या और आकाश की संध्या को एकाकार ही नहीं करती अपितु सांझी पूजा की परंपरा में,सांझी की परिकल्पना में संध्या है,उसे भी स्थापित करती है.मिथकीय परम्पराओं और लोकविश्वासों में सत्य जो भी हो,पर कुंआरी कन्याएं शताब्दियों से ममतामयी देवी के रूप में सांझी की पूजा-अर्चना करती आ रही हैं,सांझी के प्रति उनके अटल विश्वास को दर्शाता है.

Thursday, January 2, 2014

नींद क्यों आती नहीं रात भर

                                                

कोई उमीद बर नहीं आती,कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है,नींद क्यों रात भर नहीं आती

मिर्जा ग़ालिब के इस शेर के गूढ़ निहितार्थ हैं.इस शेर को लिखते समय उन्होंने भी ऐसा ही दर्द महसूस किया होगा.आम तौर पर यह समझा जाता है कि शरीर को आराम देने के लिए नींद एक आवश्यक तत्व है.नींद का संबंध मुख्य रूप से मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है.इसलिए कवि,शायर और लेखक नींद को लेकर हाय-तौबा करते हैं.चिकित्सा विज्ञान की दुनियां ने शोध के बाद जो परिणाम निकले हैं,वे इसके विपरीत हैं.शरीर के लिए आराम बहुत जरूरी है,लेकिन आराम का अर्थ खर्राटे भरकर सोने से नहीं है.बिस्तर पर शांत होकर लेट जाइए और घंटों लेटे रहिए,आराम के लिए यह काफी है.

नींद एक अजूबी चीज है.हर व्यक्ति को एक-सी नींद चाहिए,यह जरूरी नहीं.डॉक्टरों का कहना है कि शरीर रचना की प्रक्रिया के साथ नींद की आवश्कता जुडी हुई है.कुछ लोग दो घंटे सोकर काम चला सकते हैं,तो कुछ लोगों के लिए सात-आठ घंटे सोना जरूरी हो सकता है.सोने के घंटों का संबंध आयु के साथ भी है.उदहारण के लिए,एक बच्चे को 9 से 12 घंटे तक की नींद आवश्यक है.युवा व्यक्तियों को 6 से 8 घंटे काफी हैं,और वृद्धों के लिए 4-5 घंटे की नींद भी बहुत हो सकती है.

डॉक्टरों ने परीक्षणों के बाद यह सिद्ध किया है कि आयु बढ़ने के साथ-साथ नींद की आवश्यकता भी कम होती जाती है.इसलिए नींद आना या न आना चिंता का विषय नहीं है.चिंता तब होती है,जब व्यक्ति की मानसिकता नींद की हो और आँखें बंद करने के बाद भी नींद न आए.

मशीन और उद्योग की आधुनिक दुनियां ने इतना अधिक तनाव उत्पन्न कर दिया है कि मस्तिष्क के स्नायु-तंतु ‘टेंस’ बने रहते हैं.उस समय आम तौर पर देखा जाता है कि पूरे शरीर में बेचैनी,दिमाग में खिंचाव और विचारों में उग्रता आ जाती है.यह एक खतरनाक स्थिति है.इसी के बाद क्रमशः  नींद न आने की बीमारी,जिसे ‘इंसोमीनिया’ कहते हैं – शुरू हो जाती है.

अमरीका,यूरोप और रूस के देशों में इस तरह की बीमारियाँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं,और अब तो वहां नींद विशेषज्ञों का एक अलग व्यवसाय शुरू हो गया है.अक्सर देखा गया है कि नींद से त्रस्त व्यक्ति या तो नशीले पदार्थों का सेवन शुरू कर देते हैं या नींद की गोलियां खाने लगते हैं.कुछ समय के बाद वे भी असर करना बंद कर देती हैं,और तब वही लोग मार्फिया का भी इंजेक्शन लेना शुरू कर देते हैं.यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका अंत नहीं है.अंत होता है – मानसिक चेतना के खो जाने में,या आत्महत्या में.

नींद की गोलियां मन और शरीर के लिए भयंकर रूप से घातक होती हैं,यह जानते हुए भी लोग उन्हीं के आश्रित हो,बिस्तर में जाते हैं.कभी वे आराम से सो जाते हैं,कभी करवटें बदलते रहते हैं.नींद की दवाओं के घातक परिणामों को देखते हुए सरकार ने सार्वजानिक रूप से इसका निषेध कर दिया है और केवल डॉक्टरों की पर्ची पर ही ये दवाएं उपलब्ध हो सकती हैं.

वस्तुस्थिति यह है कि ‘गहरी नींद’ और ‘नींद में बहुत अंतर है. केवल दो घंटे की गहरी नींद व्यक्ति को इतना तरोताजा बना सकती है कि वह उसके बाद शारीरिक और मानसिक कार्य करने के लिए तत्पर हो सकता है.गहरी नींद से तात्पर्य है मस्तिष्क के सारे स्नायु-तंतुओं का पूर्ण विश्राम की स्थिति में पहुँच जाना और शरीर के सभी अंगों का शिथिल हो जाना.धीरे-धीरे मस्तिष्क के स्नायु तंतुओं की शिथिलता व्यक्ति के शरीर को भी प्रभावित करती है और यदि उसका मस्तिष्क तनावग्रस्त नहीं है,तो वह शीघ्र ही गहरी नींद में सो जाता है.उधर बहुत से व्यक्ति केवल नींद लेते हैं.वस्तुतः वह नींद की नहीं,बल्कि अर्द्धचेतना की स्थिति है.स्वप्न देखना,सोते में चलना,दांत किटकिटाना आदि ऐसी ही स्थितियां हैं,जो यह प्रमाणित करती हैं कि व्यक्ति नींद में नहीं बल्कि अर्द्धचेतन अवस्था में है.

अनिद्रा रोग या ‘इंसोमीनिया’ का मरीज एक या अनेक बीमारियों से ग्रस्त होता है. इसके मरीज को हमेशा यह महसूस होता है कि वह पूरी नींद नहीं ले पा रहा है.वह एक ‘रीजनेबल’ समय में नहीं सो पाता.ऐसे लोग पूरी रात सोने के बावजूद यह महसूस करते हैं कि उन्होंने आराम नहीं किया और उनके शरीर को आराम की आवश्यकता है,वे भी अनिद्रा रोगी है.

नींद से संबंधित इन सभी परेशानियों से बचने के लिए इवान्स्टन विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक प्रोफ़ेसर रिचर्ड आर. बूटजिन ने कुछ सुझाव दिए हैं...........

बिस्तर में तभी जाइए,जब आप बहुत थके हुए हों.बिस्तर में जाकर सोने की कोशिश कीजिए और अपनी समस्याओं के बारे में मत सोचिए.आदि आपको जल्दी ही नींद नहीं आती,तो बिस्तर से उठ जाइए और तब तक वापस बिस्तर पर मत जाइए,जब तक आपको यह महसूस नहीं होता कि इस बार वहां जाते ही आप सो जाएंगे.इस चक्र को तब तक दोहराते रहिए,जब तक आपको नींद नहीं आ जाती.हर सुबह जागने के लिए एक समय निर्धारित कीजिए और रोज इसी समय के अलार्म लगाकर सोइए.सप्ताहांत में भी ही समय पर सोकर उठिए.नियमित कार्यक्रम बनाने से आपको नींद भी नियमित रूप से आएगी.

डॉ.बूटजिन के अनुसार यदि एकाग्रचित्त होकर कोई कार्य कर लिया जाए,जैसे पढ़ना,तो सोने में आसानी होगी.नशीली दवाओं का प्रयोग करने की अपेक्षा ‘सम्मोहन’ से व्यक्ति अपने अनिद्रा रोग का उपचार कर सकता है.व्यक्ति स्वयं को सम्मोहित करे और यह सोचे कि मुझे नींद आ रही है-मैं गहरी नींद में सोने वाला हूँ,- मैं गहरी नींद में सो चुका हूँ - तो उससे अनिद्रा-रोग दूर होने की संभावना है.

अब डॉक्टर योगाभ्यास करने का सुझाव भी देते हैं.ध्यान या योग का यही महत्व है कि मनुष्य के शरीर की मांसपेशियां शिथिल हो जाएँ,मस्तिष्क के स्नायु-तंतुओं में तनाव ख़त्म हो जाए और अनावश्यक विचारों को मस्तिष्क में स्थान न मिले तथा मन एकाग्र हो जाए.इस प्रकार के उपायों का अभ्यास थोड़े से ही दिन करने से व्यक्ति अपने अनिद्रा-रोग पर काबू पा सकता है.

प्रश्न यह उठता है कि ‘इंसोमीनिया’ या नींद न आने के पीछे कारण क्या हैं? सामान्यतः यह समझा जाता है कि पारिवारिक विघटन,रोजगार न मिलना,व्यापार में घाटा,परीक्षा में अनुतीर्ण हो जाना या किसी अत्यंत प्रिय व्यक्ति की मृत्यु-इस मानसिक तनाव के कारण होते हैं.भारत जैसे देश में दांपत्य जीवन में कटुता या विवाहों का टूटना आदि इस रोग को जन्म देने में सबसे बड़े माध्यम हैं,तो पश्चिमी देशों में सामाजिक भीड़ में रहते हुए भी अकेलेपन की यंत्रणा ‘इंसोमीनिया’ का कारण बनती है.बहुत अधिक सोचना भी इस रोग का कारण बनता है.

वस्तुतः इन तनावों का निदान भी व्यक्ति के ही हाथों में है.जो आत्मविश्वास वह अपने परिवेश और परिस्थितियों के कारण खो देता है,उसी आत्मविश्वास का फिर से अर्जन करके,वह सामान्य भी बन सकता है.

मानसिक तनावों के अतिरिक्त रात को नींद न आने के और भी कई कारण होते हैं.दोपहर में थोड़ी देर के लिए भी सो जाने से रात को सोने में कठिनाई का अनुभव हो सकता है.बहुत ज्यादा सिगरेट या कॉफ़ी पीना भी नींद में व्याघात पहुंचाते हैं.इस तरह के मरीजों के लिए डॉ. केल्स ने कुछ सुझाव दिया हैं.उनके अनुसार,जो रोगी प्रतिदिन इन दवाओं का बहुत अधिक मात्रा में सेवन करते हैं,उन्हें पहले-पहल सप्ताह में एक दिन के लिए एक गोली कम करनी चाहिए,उसके बाद दो दिन के लिए और फिर इसी प्रकार एक-एक करके इन दवाओं की आदत को कम करना चाहिए.

यदि फिर भी आपको नींद नहीं आती,तो दुःख न मानिए,जागना अपराध नहीं है,शरीर को आराम देना जरूरी है और आराम लेटकर भी मिल सकता है.