Tuesday, September 16, 2014

चपत लगाने से पहले

काफी समय से प्रारंभिक विद्यालयों में शिक्षकों का बच्चों के कान मरोड़ना एक लोकप्रिय शगल रहा है.हम सब ने बचपन में इसका काफी अनुभव भी किया है.टास्क पूरा न करने,थोड़ी सी भी शैतानी करने पर मास्साबों का दंड देने का यह अनूठा चलन कोई गहरे अर्थ भी रखता है,यह पता न था.

‘इनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना’ में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के स्टीवेंस ने कर्ण संबंधी विवरण में बताया है कि कान के पास बालों की जो जड़े हैं,वहां पर सत्ताइस हजार ‘नर्व फाइबर्स’ जुड़े हुए हैं.विधाता ने शरीर की रचना कितनी जटिल और विचित्र बनाई है कि विज्ञान के इतना अधिक विकसित होने के बावजूद अनेक रहस्यों को जानना अभी तक संभव नहीं हुआ.फिर भी वे सभी शोधकर्त्ता,सर्जन और वैज्ञानिक प्रशंसा के पात्र हैं,जिन्होंने शरीर के एक-एक अंग को बारीकी से नापा-तौला,जांचा-परखा और चिकित्सा विज्ञान को आज की उन्नति की दशा तक पहुँचाया है.

उन्होंने कान के संबंध में भी बहुत सराहनीय जानकारी प्राप्त की है और इलाज के तरीके भी खोज लिए हैं.इसके पहले भी भारत और चीनी चिकित्सकों ने कान के संबंध में पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर काफी शोध कार्य किया होगा तभी कर्ण-वेधन और एक्यूपंक्चर पद्धति का प्रचलन हुआ.
यूँ तो शरीर के प्रत्येक अवयव और हरेक नस-नाड़ी का अपना विशिष्ट महत्व है,परन्तु कान का विशेष महत्व इसलिए है कि उसका संबंध आँख,नाक,गले और मस्तिष्क से है.इन अंग-प्रत्यंगों की रचना बहुत जटिल और रहस्यपूर्ण है,फिर भी एक निश्चित नियमानुसार पूर्ववर्ती चिकित्सकों ने इनको स्वस्थ रखने और रोगों को दूर करने के लिए सरल उपाय खोजे हैं.

आज के चिकित्सा विज्ञान ने प्रत्येक अंग का विशेष अध्ययन करने वाले हजारों विशेषज्ञ तैयार कर लिए हैं.जैसे आँख,नाक,कान गले के विशेषज्ञ,ह्रदय के विशेषज्ञ आदि.परन्तु विडंबना यह है कि ये विशेषज्ञ अन्य अंगों के बारे में साधारण जानकारी के अतिरिक्त अधिक कुछ नहीं जानते,जबकि भारत और चीन के प्राचीन चिकित्सकों ने शरीर की अंदरुनी  रचना का बारीकी से अध्ययन करके कुछ सरल इलाज निश्चित किये थे.कर्ण-वेध संस्कार और एक्यूपंक्चर उसी चिकित्सा पद्धति का सरलीकृत रूप है,जिससे शरीर के विभिन्न रोगों को दूर किया जाता है,अथवा बीमारियों से बचाव किया जाता है.

हमारे यहाँ कान में तेल डालना,कान की मालिश करना,कान में बालियाँ पहनना आदि कर्ण संबंधी रोगों को दूर करने के उपाय बताए जाते हैं.चूंकि कान की नसें मस्तिष्क से जुड़ी हुई हैं,इसलिए अध्यापक गण बच्चों की कानकुच्ची करके सर पर चपत लगाते रहे,जिससे बुद्धि चैतन्य हो,अकल ठिकाने आये.

यदि पहले के अध्यापकों के पढ़ाए हुए विद्यार्थी आज सफल व्यवसायी,उद्योगपति या उच्च अधिकारी के रूप में सम्मानित हैं तो इसका कुछ श्रेय उन अध्यापकों को भी जाता है,जो कान पकड़-पकड़कर उनकी बुद्धि प्रखर बनाते रहे.इसके लिए उन सबको अपने अध्यापकों,बड़ों को धन्यवाद देना चाहिए.जिन्होंने उनके कान खींचे,सर पर चपतें लगायीं और कान पकड़कर उठक-बैठक करायी.जिन्होंने इसको बुरा समझा वे नादान ही बने रहे और जिंदगी का भार ढोते रहे.

इसलिए कान खोलकर सुनने जैसे मुहावरों पर ध्यान देने की जरूरत है कि जब भी अकल गुम हो जाए,बुद्धि काम न करे,तो कान पकड़िए,कान खींचिए,सर पर स्वयं ही चपत लगाइए.

Thursday, September 4, 2014

दीर्घजीवन और पालतू जानवर

अक्सर यह सवाल उठता रहा है कि क्या जानवर पालने वाले दीर्घजीवी होते हैं? मनोवैज्ञानिकों और चिकित्सकों की राय में युवाओं और बच्चों में पालतू जानवरों के प्रति जो प्रतिक्रिया होती है,उससे व्यक्तित्व के निदान में काफी सहायता मिल सकती है.अवकाशप्राप्त व्यक्तियों के निष्क्रिय जीवन में भी पालतू पशु की उपस्थिति परिवर्तन लाती है.

अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ. बोरिस लेविंसन ने अपने प्रयोगों द्वारा इसे सिद्ध भी किया है.उनके पास नियमित इलाज के लिए मानसिक रोग से पीड़ित एक बच्चा आया.डॉ. लेविंसन का पालतू कुत्ता भी वहीँ था.वह बच्चा कुत्ते के साथ खेलने लगा.डॉ.लेविंसन ने कुत्ते के साथ उस बच्चे के खेल की गतिविधियों को बड़े ध्यान से देखा.उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उस दिन वह बच्चा उनके इलाज के दौरान असामान्य रूप से संवेदनशील हो गया था.

डॉ. लेविंसन को इस अध्ययन से इलाज का एक महत्वपूर्ण तथ्य अनायास ही हाथ लग गया था.इस संबंध में उन्होंने बहुत सी रिपोर्टें प्रकाशित करवायीं.रिपोर्टों में उन्होंने बताया कि मानसिक रोग से पीड़ित बच्चों,अस्पताल में पड़े शारीरिक रूप से बीमार लोगों और मानसिक रूप से अविकसित लोगों के इलाज में पालतू जानवर कितने सहायक हो सकते हैं.

डॉ. लेविंसन का विचार है कि पालतू जानवरों के माध्यम से किया जाने वाला इलाज उन बच्चों के इलाज में सबसे अधिक सहायक है,जो चुपचाप रहते हैं,हमेशा विघ्न डालते हैं और जिनका इलाज लगभग असंभव है. इसके अतिरिक्त यह इलाज मानसिक रोगियों तथा उद्वेग से त्रस्त बीमारियों के शिकार लोगों के लिए भी सहायक हो सकता है.

एक जानवर की उपस्थिति वातावरण को अधिक प्राकृतिक बना देती है,जिससे बच्चा स्वयं को काफी आरामदेह स्थिति में पाता है.उसे यह आभास नहीं होता कि कोई उसकी गतिविधियों का निरीक्षण कर रहा है.हालांकि डॉ. लेविंसन से पहले भी अन्य लोगों का ध्यान इस ओर गया था कि पालतू जानवरों के माध्यम से इलाज किया जा सकता है लेकिन इसे नजरंदाज कर दिया गया.

जानवरों के माध्यम से किये जाने वाले पहले के इलाज तथा लेविंसन के इलाज में एक अंतर यह था कि पहले इस तरह के इलाज में वैज्ञानिक सोच का अभाव था.उस समय इस इलाज का कोई भी ऐसा निश्चित परिणाम नहीं था,जिसके आधार पर भविष्य में इस इलाज को बढ़ावा दिया जाय.

लेविंसन की तरह सैमुएल तथा एलिजाबेथ कोर्सन ने भी एक घटना से यह पाया कि जानवर मनुष्यों के इलाज में किस तरह सहायक हो सकते हैं.इन दोनों मनोचिकत्सकों ने कुत्तों के व्यवहार का अध्ययन किया.कुछ मरीजों ने उनके अस्पताल के कंपाउंड में रहने वाले कुत्तों के साथ मन बहलाने की इच्छा और उनकी देखभाल करने की इच्छा प्रकट की.मरीजों की इच्छा को देखते हुए इन मनोचिकित्सकों ने 28 मरीजों को कुत्तों के देखभाल की अनुमति दी.इन मरीजों पर तब तक किसी भी उपचार का कोई प्रभाव नहीं हुआ था और उन्हें लाईलाज समझा गया था.लेकिन इस प्रयोग का उन अच्छा प्रभाव पड़ा.

डॉ. कोर्सन ने इससे निष्कर्ष निकाला कि जानवर मरीजों में जिम्मेवारी की भावना को बढ़ावा देते हैं.साथ ही वे उन्हें यह भी अहसास कराते हैं कि समाज के लिए वे बेकार नहीं हैं,बल्कि समाज को उनकी जरूरत है.उनके अनुसार,इस तरह के इलाज में मुख्य रूप से कुत्ते सहायक होते हैं, क्योंकि वे मरीज को अपना पूरा प्यार देते हैं.

इस तरह के इलाज में जानवरों के माध्यम से किसी को ठीक नहीं किया जाता,बल्कि ये जानवर सुविधा प्रदान करने का काम करते हैं.ये जानवर मरीज का भावनात्मक स्तर बढ़ा देते हैं,जिससे मरीज अपने विषय में जरा अच्छे ढंग से सोचने लायक हो जाता है.जानवरों में मरीजों से ‘रेस्पोंस’ प्राप्त करने की क्षमता होती है,क्योंकि मरीजों के लिए वे पूरी तरह स्वीकार्य होते हैं.

व्यक्ति जब अपने पालतू जानवर के साथ होता है तो उसका रक्तचाप सामान्य रहता है.व्यक्ति और पालतू जानवर में प्रेम की अभिव्यक्ति बोलकर भी हो सकती है और बिना बोले भी.कोई व्यक्ति जब पालतू जानवर के साथ होता है तो अधिकतर खामोश रहता है,जिससे उसे सुकून मिलता है.जब वह अन्य लोगों के साथ होता है तो वह बिना बोले नहीं रह सकता.

चिकित्सकों का एक निष्कर्ष यह भी है कि किसी जानवर से मरीज का साथ उसके रोग के प्रभाव को कम करता है तथा आयु को बढ़ाता है.पश्चिमी देशों में बहुत से वृद्ध पुरुषों की देखभाल करने वाला कोई नहीं होता.समाज की दृष्टि में वे स्वयं को निरर्थक महसूस करने लगते हैं.ऐसेलोग जानवरों में  दिलचस्पी लेते हैं.कई ऐसी महिलाएं,जो युवावस्था में कभी बच्चों की देखभाल में व्यस्त रहती थीं,बच्चों के घर छोड़ते ही परेशान हो जाती हैं,क्योंकि उनके पास,करने के लिए कोई काम नहीं होता.पालतू पशुओं की देखभाल में उन्हें मानसिक संतुष्टि मिलती है.

यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि स्पर्श से व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है.इस दृष्टि से बच्चों को स्पर्श करने की आवश्यकता तो बहुत पहले से स्पष्ट है लेकिन अब जानवरों के साथ भी यही भावना पाई जाती है.

वे वृद्ध पुरुष जो दिन भर स्वयं को किसी काम में व्यस्त रखते हैं,अधिक समय तक जीवित रहते हैं.यह भी देखा गया है कि दिन भर कोई काम न करने वाले अवकाशप्राप्त व्यक्तियों के जीवन में एक पालतू पशु की उपस्थिति परिवर्तन ला देती है.