Sunday, October 23, 2016

रामकथा के लोक प्रसंग

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रामकथा की लोकप्रियता का आलम यह है कि भारत सहित अन्य देशों में विभिन्न टी.वी. चैनलों पर इसका प्रसारण वर्षान्त तक होता रहता है.इसे उपन्यास के शक्ल में ढालने वालों में नरेंद्र कोहली से लेकर आज के दौर के लेखकों अमीश त्रिपाठी,अशोक बैंकर,देवदत्त पटनायक एवं अन्य लेखक भी सक्रिय रहे हैं.

रामकथा के विभिन्न रूप विभिन्न देशों और विभिन्न भाषओं  के साहित्यों में पाए जाते हैं.प्रायः सभी कथाओं का मूल समान होते हुए भी अनेक घटनाओं का वर्णन भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न कथाओं में मिलता है.मूल कथा से जुड़े होते हुए भी इनकी भिन्नता को दो भिन्न भाषाओँ में स्पष्टतया देखा जा सकता है.

सीता वनवास से जुड़े एक प्रसंग में थाई रामायण के अनुसार – रावण को मारने के बाद सीता को लेकर राम-लक्ष्मण कुछ वानरों के साथ अयोध्या लौट आए.लंका का राज्य विभीषण को दे दिया.राम आनंदपूर्वक अयोध्या का राज्य चलाने  लगे.उन्हीं दिनों पातळ में एक राक्षसी रहती थी.रावण के समूल वंश नाश से उसे बहुत दुःख था.उसने सोचा कि सीता के कारण उसके बंधु-बांधव मारे गए,इसलिए वह अवश्य बदला लेगी.

यह सोचकर उसने सुंदर स्त्री का रूप बनाया और अयोध्या आ पहुंची.वह राजमहल में सीता के पास आई.   गिड़गिड़ाकर बोली,’महारानी जी,मैं इस संसार में अकेली हूँ.मेरे दिन बड़ी कठिनाई से बीतते हैं.आप मुझे राजमहल में रख लें तो बड़ी कृपा होगी.मैं आपकी खूब सेवा करूंगी.’कहते-कहते आँखों में आंसू भर लायी.

सीता का ह्रदय ठहरा दया का सागर,उन्होंने उसे राजमहल में रख लिया.अब वह राक्षसी हर समय सीता के साथ रहती.उसने ऐसा मायाजाल  फैलाया कि सीता अन्य दसियों की अपेक्षा उस पर अधिक विश्वास करने लगी.

एक दिन उस राक्षसी ने सीता से कहा,’महारानी जी मैंने रावण के बारे में बहुत सी बातें सुनी है.कहते हैं कि उसकी सूरत बहुत भयानक थी,उसके दस सिर थे.आपने तो उसे कई बार देखा होगा,कैसा था वह राक्षस.सीता ने उसे रावण के बारे में बताया तो वह राक्षसी बोली,’महारानी जी उसका चित्र तो बनाइए.मैं देखना चाहती हूँ कि वह कैसा दिखता था.’

उसी राम वहां आए.राक्षसी तुरंत सीता द्वारा बनाए चित्र में प्रवेश कर गयी.अब सीता समझी कि वह दासी कोई राक्षसी है.उन्होंने रावण का चित्र मिटाने की कोशिश की,पर नहीं मिटा पायी.सीता घबरा गईं,उन्होंने सोचा,अगर राम ने रावण का चित्र देखा तो अनर्थ हो जाएगा.मुझ पर संदेह करेंगे.उन्होंने झट उसे सिंहासन के नीचे रक्ज दिया और बाहर चली गयीं.

राम आकर सिंहासन पर बैठ गए.एकाएक उन्हें जोर की गर्मी महसूस हुई.सिंहासन से आग की लपटें निकलने लगीं.यह राक्षसी की माया थी.राम ने उठ कर देखा तो रावण का चित्र दिखाई दे गया.वह क्रोध में बोल पड़े,’कौन है जिसने रावण का चित्र बनाया? मैं उसे कठोर दंड दूंगा.’

सभी दासियाँ चुप रहीं.सीता का नाम कौन लेती.सीता समझ गयीं कि इस तरह तो सबको दंड मिलेगा.उन्होंने अंदर आकर प्रणाम किया फिर सारी बात कह सुनाई.सुनकर राम बोले,’तो तुम्हारे मन में अब भी रावण बसा हुआ है.मैं तुम्हें एक पल भी अयोध्या में नहीं रहने दूंगा.उन्होंने लक्ष्मण को बुलाया और कहा.’लक्ष्मण,सीता को अभी जंगल में ले जाओ और तलवार से इन्हें मार दो,यह मेरी आज्ञा है.भाई की आज्ञा सुन लक्ष्मण भी घबरा गए पर भाई की आज्ञा जो ठहरी.

वह सीताजी को रथ में बिठाकर वन की और चल दिए.उनकी आँखों से आंसू गिर रहे थे.सीताजी ने कहा,’लक्ष्मण तुम्हारा कोई दोष नहीं.मेरा भी कोई कुसूर नहीं,एक राक्षसी के कारण ही ऐसा हुआ.तुम अपने कर्तव्यों का पालन करो.’

जंगल में पहुंचकर लक्ष्मण ने तलवार उठायी तो उनका हाथ कांप गया.तलवार छूट कर झाड़ियों में जा गिरी.उनका ह्रदय रो रहा था.उन्होंने आँखें बंद कर फिर तलवार चलायी तो वह फूलों का हार बनकर सीता के गले में गिर गयी.लक्ष्मण बेहोश होकर गिर पड़े.सीता उन्हें होश में लायी.उन्हें जीवित देख लक्ष्मण को आश्चर्य हुआ.सीता ने गले से फूलों की माला निकालकर लक्ष्मण के सामने रख दी.लक्ष्मण सीता को जंगल में छोड़कर अयोध्या चले गए.

इसी से मिलता जुलता एक प्रसंग बुंदेलखंड के अनाम,निरक्षर कवियों द्वारा गढ़ी गयी राम कथा में मिलती है.इन लोक कवियों ने राम-कथा को नए-नए आयाम दिए हैं.उनकी भाषा भले ही परिष्कृत न हो लेकिन कल्पना की उडान अद्भुत और मन को छूने वाले हैं.बुंदेली ग्रामीण ललनाओं के मुख से राम-कथा रुपी गीतों के झरने फूटते हैं तो मन आनंद के सागर में गोते लगाने लगता  है.

Sunday, October 16, 2016

फिर वही कथा कहो

लोककथाएं,कहानियां,जनश्रुतियां सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती रही हैं.इनमें कई आख्यान और उपख्यान तात्कालिक दौर में जोड़े जाते रहे लेकिन वे हमारी सांकृतिक विरासत का हिस्सा भी बनी रहीं.बचपन में हम सबने दादी-नानी से असंख्य कथाओं को सुना होगा और फिर से वही कथाएं भी दुहरायी गयी होंगी,बालमन पर अमिट छाप छोड़ जाने के लिए.

लेकिन बदलते वक्त के साथ कहानियों के माध्यम और प्रकार भी बदल गए हैं.अब बच्चों के पास वक्त नहीं होता इन कहानियों के लिए.स्कूली बस्ते का भारी बोझ एवं मन बहलाने के अन्य साधनों की भरमार हो गयी है.इसलिए बाल-मन पर दूसरे माध्यमों का प्रभाव पड़ना लाजिमी है.

कई संस्कृतियों में मोर को प्रमुख रूप से निरूपित किया गया है, अनेक प्रतिष्ठानों में इसे आईकन के रूप में प्रयोग किया गया है, 1963 में इसे भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया.भारत में अक्सर इसे परंपराओं, मंदिर में चित्रित कला, पुराण, काव्य, लोक संगीत में जगह मिली है.कई हिंदू देवता पक्षी के साथ जुड़े हैं,  

कृष्ण के सिर पर मोर का पंख बंधा रहता है ,जबकि यह शिव का सहयोगी पक्षी है जिसे गॉड ऑफ वॉर कार्तिकेय (स्कंद या मुरुगन के रूप में) भी जाने जाते हैं.बौद्ध दर्शन में, मोर ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है. मोर पंख का प्रयोग कई रस्मों और अलंकरण में किया जाता है. 

मोर रूपांकनों का प्रयोग वस्त्रों, सिक्कों, पुराने और भारतीय मंदिर की वास्तुकला और अन्य उपयोगी तथा कला के कई आधुनिक मदों में व्यापक रूप से होता है.ग्रीक पौराणिक कथाओं में मोर का जिक्र मूल अर्गुस और जूनो की कहानियों में है.सामान्यतः कुर्द धर्म येज़ीदी के मेलेक टॉस के मुख्य आंकड़े में मोर को सबसे अधिक रूप से दिखाया गया है.मोर रूपांकनों को अमेरिकी एनबीसी टेलीविजन नेटवर्क और श्रीलंका के एयरलाइंस में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है.

भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर के संबंध में भी अनेक दंत कथाएं प्रचलित हैं.एक मालवी लोक कथा के अनुसार-एक गाँव में एक किसान रहता था.उसका विवाह दूसरे गाँव में एक बड़े घर की बेटी से हो गया.वह गरीब किसान अपनी पत्नी को लाने कई बार उसके मायके गया लेकिन हर बार उसके मायके वालों ने कोई न कोई बहाना बनाकर टाल दिया.इससे उसके गाँव वाले हमेशा उसे ताना देते रहे.

लोगों के तानों से तंग आकर एक बार फिर वह पत्नी को लिवाने उसके गाँव पहुंचा.घबराहट में, राह किनारे देवी के मंदिर में जा पहुंचा.मैया से विनती करते-करते उसके मुंह से निकल गया,’मातेश्वरी,यदि  मेरी घरवाली मेरे साथ आएगी तो मैं अपना सिर तुझे चढ़ा दूंगा.’

गरीब किसान हिचकिचाता हुआ ससुराल पहुंचा,वहां उसकी खूब आवभगत हुई.दो दिन के सत्कार के बाद उन्होंने उसकी घरवाली उसके साथ विदा कर दी.छम-छम करती बैलगाड़ी में अपनी दीदी और जीजाजी को बिठाकर साला ले चला.गाँव के बाहर आते ही देवी का मंदिर आया,तो गरीब किसान को अपनी प्रतिज्ञा याद आ गयी.उसने बैलगाड़ी को रुकवाते हुए कहा-‘मैं मातेश्वरी के दर्शन कर अभी आता हूँ,तुम दोनों यहीं ठहरो.’

मातेश्वरी के सामने पहुंचकर गरीब किसान ने अपने वचन के अनुसार छुरी से अपना गला काट लिया.धड़ और सिर अलग-अलग जा गिरे.खून की धार बह चली.इधर गरीब किसान का साला और उसकी घरवाली राह देखते-देखते परेशान हो गए.किसान के साले ने दीदी से कहा – ‘मैं देखकर आता हूँ.’

मंदिर में आकर उसने अपने जीजाजी का सिर और धड़ अलग-अलग पड़ा देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गया.उसने सोचा कि यही बात वह अपनी दीदी से कहेगा तो विश्वास नहीं करेगी और सोचेगी भैया ने ही उसके घरवाले की हत्या कर दी या करा दी है.छोड़ने का बहाना करके वह साथ में इसलिए आया था.यही सोचते हुए उसे लगा कि अब वह बहन को कौन सा मुंह दिखाए,इससे तो मर जाना ही अच्छा है.

किसान के साले ने इसी संताप में छुरी उठाकर अपनी गरदन  दी.उसका भी सिर और धड़ अलग-अलग जा गिरा और खून की धार बह चली.उधर किसान की घरवाली बैलगाड़ी में बैठे-बैठे घबरा गयी.इन दोनों को तलाशने वह मंदिर में आई तो वहां का दृश्य देखकर उसने अपना सर पीत लिया.विलाप करते-करते उसे ख्याल आया कि वह लोगों को कैसे मुंह दिखाएगी.लोग उसके चरित्र पर दोषारोपण करेंगे और कहेंगे  की वह इसी लिए पति के साथ नहीं आई.आज आना पड़ा तो पति और भाई की हत्या करवा दी.

इसी शर्म के मारे उसने पास पड़ी छुरी उठायी और अपनी गरदन काटने को उद्धत हुई.तभी देवी ने उसे टोका,नहीं....नहीं,ऐसा मत कर.किसान की घरवाली ने गिड़गिड़ाते हुए कहा-‘मातेश्वरी इसके सिवा रास्ता ही क्या बचा है मेरे लिए?

मातेश्वरी ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा – ‘घबरा मत. मैं तेरे घरवाले और भाई को फिर से जीवित कर दूंगी,तू इनके धड़ से सिर मिला दे.’प्रसन्नता से बावली हुई उस नारी ने हड़बड़ाहट में घरवाले के धड़ पर भाई का सिर और भाई के धड़ पर घरवाले का सिर लगा दिया.मातेश्वरी ने दोनों को जीवित कर दिया.दोनों अपने-अपने कपड़े झाड़ते हुए उठ खड़े हुए.

उस स्त्री के लिए अब यह समस्या उठ खड़ी हुई कि इन दोनों में से किसे घरवाला माने और किसे भाई माने?यह समस्या जब उससे नहीं सुलझी तो माता के सामने रोयी-गिड़गिड़ायी.माता ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि इसे ब्रह्माजी ही सुलझा सकते हैं.

वह भागी-भागी ब्रह्माजी के पास गयी और अपना दुखड़ा कह सुनाया.ब्रह्माजी ने इस समस्या पर विचार करके इन दोनों को मोर-मोरनी बना दिया.इस रूप में पति-पत्नी के धर्म का निर्वाह शरीर स्पर्श के बिना ही होने लगा.मोर नाचने लगे और मोरनी उन अश्रुकणों को चुग-चुगकर  संतान को जन्म देने लगी.



Wednesday, October 12, 2016

रावण कभी नहीं मरता

भारतीय उपमहाद्वीप में सदियों से बुराइयों पर अच्छाइयों के विजय के प्रतीकस्वरूप,विजयादशमी के दिन रावण के दहन की प्रथा रही है जो अब तक चली आ रही है.लंका का अधिपति राक्षसराज रावण,धनपति कुबेर का भाई,संस्कृत और वेदों का महापंडित,परम शिवभक्त और शिव-तांडव-स्रोत का रचयिता भी था.वह अपार वैभव ही नहीं अपार शक्ति का भी स्वामी था.

वाल्मीकि के अनुसार,रावण की मृत्यु के उपरांत ,स्वयं श्री राम ने विभीषण से कहा,”राक्षसराज रावण समर में असमर्थ होकर नहीं मरा.इसने प्रचंड पराक्रम किया है.इसे मृत्यु का कोई भय नहीं था.यह देवता रणभूमि में धराशायी हुआ है.

रावण की मृत्यु के बाद उससे सदा तिरस्कृत विभीषण ने श्रीराम से शोक संतप्त स्वरों में कहा,’भगवन,देवताओं से अपराजित रावण आज आपसे युद्ध करके रणभूमि में वैसे ही शांत पड़ा है जैसे समुद्र अपनी तट भूमि पर पहुंचकर शांत हो जाता है.वह महाबली ,अग्निहोत्री,महातपस्वी,वेदांतवेत्ता और यज्ञ कार्यों में श्रेष्ठ था.

नि:संदेह रावण महातपस्वी भी था.पौराणिक आख्यान हमें बताते हैं कि उसने तपस्या कर ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया था. लेकिन उसके मन में जन्मा विकार उसके सर्वनाश का कारण इस कदर बना कि अपनी मृत्यु के उपरांत भी वह उपहास का पात्र बना हुआ है जिसे हम विजयादशमी के दिन उसके दहन के रूप में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं.

रावण के तमाम गुणों पर उसकी एक भूल,अहं की अनुचित पराकाष्ठा, उसके दुर्गुण को ही सामने लाते हैं.कहा जाता है कि वह घोर व्यक्तिवादी और अहं का शिकार था.कैलास को शीर्ष पर उठा लेने के बाद उसके मन में सर्वशक्तिमान हो जाने का अहं जागा था.शिव अपने प्रिय भक्त में मन में आये इस विकार को जान गए थे.उन्होंने अपने अंगूठे के दबाव से रावण को उसकी असमर्थता का भान करा दिया था.एलोरा के कैलास मंदिर में यह प्रसंग शिल्पियों ने पत्थरों पर भी उकेरा है.

रावण को लेकर अनेक कथाएँ हैं.उसके नाम को लेकर भी कई कथाएँ हैं.जैसे रावण का अर्थ है - सारे संसार को रुलाने वाला,जन्म के समय गर्दभ स्वर में रोने वाला या बहुत अधिक चिल्लाने वाला.एक कथा के अनुसार,जब रावण सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर गया तो मानवों और देवों ने ईश्वर से उसे दंडित करने की प्रार्थना की.यह प्रार्थना विष्णु तक भी पहुंची.उन्होंने घोषणा की कि अहंकारवश रावण ने जिस मानवीय शक्ति की उपेक्षा की है,वह उसी शक्ति के द्वारा नष्ट भी होगा और इस घोषणा को सिद्ध करने के लिए विष्णु ने राम का अवतार लिया.

अहंकार को मनुष्य के उत्थान की सबसे बड़ी बाधा माना गया है.संतजन कहते हैं कि ज्यों-ज्यों अहंकार मिटता है,व्यक्ति का चित्त निर्मल होने लगता है.व्यक्ति ईश्वर के निकट पहुँचता है.दूसरों से अधिक श्रेष्ठ,शक्तिमान अधिक सम्माननीय बनने की लालसा सबके मन में होती है.रावण ने भी स्वयं को सर्व शक्तिमान समझ लिया था. जो उसके अंत का कारण बना.

मानवीय विकार मनुष्यों की स्वभावगत प्रवृति है लेकिन शुभ संस्कारों के कारण हम इनसे जूझते भी रहते हैं.आदि काल से सद् और असद् प्रवृत्तियों के बीच द्वंद चलता रहता है.रावण इन्हीं असद् और आसुरी प्रवित्तियों का प्रतीक है.
जब तक मनुष्य के मन में सद् और असद् के बीच द्वंद चलता रहेगा तब तक प्रतीकात्मक रूप में रावण भी जीवित रहेगा,वह कभी नहीं मरेगा.यह भी सत्य है कि जब तक रावण नहीं मरता,तब तक राम का आदर्श भी धुंधला नहीं हो सकता.