Monday, January 30, 2017

ऐतिहासिक चरित्रों से निकलती चिंगारी

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इन दिनों मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत और रानी पद्मावती इतर कारणों से चर्चा में हैं.फिल्मों और धारावाहिकों में ऐतिहासिक चरित्रों या जनमन में बसे चरित्रों के साथ छेड़छाड़ या काल्पनिक प्रसंगों का जोड़ा जाना कोई नई बात नहीं है.काल्पनिक दृश्य फिल्मों एवं धारावाहिकों को जहाँ विवादों में लाकर प्रचार तो दिलाते ही हैं वहीं वे इसके निर्माताओं को भी मोटा मुनाफा दिलाने में भी कामयाब हो जाते हैं.

सन् 1304 में हुए चित्तौड़ के मर्मस्पर्शी जौहर से प्रेरित होकर कई कवियों और लेखकों ने कई कथाओं को जन्म दिया.इन सबमें सबसे अधिक लोकप्रिय जायसी द्वारा लिखित 1540 ई. का पद्मावत है.जायसी के बाद अन्य लेखकों ने भी पद्मावत को आधार बनाकर,तथ्यों को तोड़-मरोड़कर,कई नए ग्रंथ लिख डाले जिनमें हाजी उदबीर,फ़रिश्ता और कर्नल टॉड प्रमुख हैं जिन पर कई प्रश्न चिन्ह हैं? इन सबमें सबसे बड़ा प्रश्न यह रहा है कि चित्तौड़ के रावल रतन सिंह की महारानी का नाम पद्मिनी ही था या कोई और नाम था.

जायसी के पद्मावत में कुछ वृत्तांत भ्रामक प्रतीत होता है.जायसी द्वारा रतनसिंह के रावल बनने के बाद सिंहल द्वीप(श्रीलंका) जाने और बारह वर्ष तक रहने का उल्लेख है जबकि रतनसिंह कुल एक वर्ष ही राजगद्दी पर रहे.चित्तौड़ से प्राप्त सन् 1302 के शिलालेखों से यह पता चलता है कि सन् 1302 में रावल समरसिंह मेवाड़ के शासक थे.इस समय रतनसिंह राजगद्दी पर नहीं बैठे थे और सन् 1304 में अलाउद्दीन खिलजी के साथ हुए युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए थे.अलाउद्दीन के साथ आए अमीर खुसरो ने भी रतनसिंह की मृत्यु का वर्ष 1304 ही लिखा है.फिर कोई प्रश्न नहीं उठता है कि रतनसिंह पद्मिनी को प्राप्त करने के उद्देश्य से सिंहल द्वीप गया हो और वहां बारह वर्ष तक रहा हो.

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘जायसी ग्रंथावली’ में पद्मिनी को सिंहल द्वीप की राजकुमारी मानने से इंकार किया है.इसी तरह पद्मिनी और रावल के बीच जो प्रेम-प्रसंगों का वर्णन जायसी ने ‘पद्मावत’ में किया है वह काल्पनिक है.जायसी ने अपने ग्रंथ में कुम्भलनेर(कुम्भलगढ़) के शासक का नाम देवपाल बताया है,जबकि उस समय कुम्भलनेर आबाद ही नहीं हुआ था तो फिर उसके शासक का नाम देवपाल लिखना काल्पनिक प्रतीत होता है.

जायसी ने पद्मिनी का कांच में प्रतिबिंब दिखाने का जो प्रसंग लिखा है वह भी उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है क्योंकि राजपूतों में किसी गैर पुरुष के सम्मुख लड़की या बहू को प्रस्तुत करने की परंपरा नहीं रही है,यहाँ तक कि चित्र दिखाने की भी परंपरा नहीं थी और आज भी कुछ घरानों में यह परंपरा नहीं है तो फिर रावल ने पद्मिनी का प्रतिबिंब दिखाना स्वीकार किया हो,यह असंभव सा प्रतीत होता है.

जायसी ने अलाउद्दीन द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण करने का कारण पद्मिनी को प्राप्त करना बताया है.उसके अनुसार राघव नमक भिक्षुक से पद्मिनी के सौंदर्य का वृत्तांत सुनकर अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण करने की योजना बनायी थी.जबकि ऐतिहासिक तथ्य है कि राजपूताने पर आक्रमण करने की उसकी सुनिश्चित योजना थी  जिसके अनुसार उसने न केवल चित्तौड़ पर बल्कि सिवाना,जालौर और रणथंभौर के प्रमुख दुर्गों पर भी आक्रमण किया था.

अमीर खुसरो जो आक्रमण के समय सुल्तान के साथ था और जिसने अपने ग्रंथ ‘तारीख-ए-इलाही’ में चित्तौड़ के आक्रमण और युद्ध का विस्तृत वर्णन किया है,कहीं भी युद्ध का कारण पद्मिनी को प्राप्त करने की योजना नहीं बताया है.इससे स्पष्ट होता है कि अलाउद्दीन के आक्रमण का कारण पद्मिनी नहीं बल्कि उसकी साम्राज्यवादी भावना थी जिसका परिचय उसने अन्य रियासतों में भी दिया था.

पद्मावत में कई काल्पनिक घटनाओं का समावेश है जिसके कारण यदि पद्मिनी भी उसकी एक काल्पनिक नायिका हो तो कोई आश्चर्य नहीं.समकालीन लेखक बर्नी,इसामी,इब्ने बतूता एवं अमीर खुसरो के ग्रंथ भी इसकी पुष्टि करते हैं.इन विद्वानों के ग्रंथों में मेवाड़ की महारानी का नाम पद्मिनी कही नहीं आया है.इन लोगों ने कहीं भी रावल रतनसिंह  और पद्मिनी के प्रेम-प्रसंग या अलाउद्दीन के पद्मिनी पर मोहित होने का जिक्र नहीं किया है.

राजपूत इतिहास के प्रमुख ग्रंथ वीर विनोद,नैणसी की ख्यात,वंश भाष्कर एवं उदयपुर राज्य का इतिहास भी रावल रतनसिंह के किसी महारानी पद्मिनी का उल्लेख नहीं करते.कुम्भलगढ़ एवं एकलिंग के शिलालेख अलाउद्दीन और रतनसिंह के युद्ध का वृत्तांत तो देते हैं लेकिन कहीं भी पद्मिनी के नाम का जिक्र नहीं है.अगर युद्ध का कारण पद्मिनी होती तो शिलालेखों में कही तो नाम आया होता.

जायसी की दृष्टि में यदि पद्मिनी ने इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी तो उसका नाम राजपूत एवं मुस्लिम स्त्रोतों में अवश्य ही होता.इस कारण इस धारणा को बल मिलता है पद्मिनी वास्तव में मेवाड़ की महारानी थी ही नहीं.संभव है पद्मिनी जायसी की काल्पनिक नायिका रही हो.

यह भी संभव है कि असंख्य नारियों के जौहर ने जायसी को लिखने के लिए प्रेरित किया हो और उस जौहर में उसने महारानी का नाम कही नहीं मिलने की दशा में पद्मिनी नाम से संबोधित किया हो क्योंकि सौंदर्य शास्त्रों के अनुसार पद्मिनी श्रेणी की नारियाँ श्रेष्ठ मानी जाती हैं.

ऐतिहासिक स्रोतों से ऐसा प्रतीत होता है कि जौहर और युद्ध ने जायसी को एक सुंदर एवं रोचक महाकाव्य लिखने को प्रेरित किया और उसने अनेक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ,मनगढ़ंत घटनाओं एवं नामों को जन्म दिया.जौहर के दो सौ छत्तीस वर्ष बाद लिखे ग्रंथ में जायसी को मूल नाम एवं सत्य घटना का पता लगाने में अवश्य कठिनाई हुई होगी. 

रावल रतनसिंह की पटरानी के संबंध में केवल एक शिलालेख में ‘सुंभगादे’ नाम का उल्लेख मिलता है.जायसी के पद्मिनी का चरित्र भले ही काल्पनिक रहा हो जैसा कि वरिष्ठ इतिहासकार प्रो. इरफ़ान हबीब भी मानते है कि यह जायसी का काल्पनिक चरित्र है और इतिहास में इस नाम का कहीं जिक्र नहीं मिलता,फिर भी साहित्यिक दृष्टि से पद्मावत एक अनुपम काव्य है और साहित्य की धरोहर है.

ऐतिहासिक या लोकमन में बसे चरित्रों का चित्रण करते समय जनभावना का ख्याल रखा जाना जरूरी है.बेवजह इस तरह के चरित्रों को व्यावसायिकता की आड़ में, दर्शकों की रूचि के अनुसार ढालना या विवादों में घसीटना सही नहीं है.

Wednesday, January 11, 2017

अफ़साने और भी हैं

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आज के इस वैज्ञानिक युग में निरंतर रहस्यपूर्ण खोजें होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी.प्रतिदिन के समचार पत्र नित नयी खोजों और अध्ययनों से भरी रहती हैं.21वीं सदी में भी हम अपने आसपास नजर डालते हैं तो पाते हैं कि ऐसी कई चीजें हैं जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते और फिर उनकी जानकारी देने वाला साहित्य हमारे सामने आता है.यह भी विरोधाभास है कि जितनी जानकारी हमारी बढ़ती जाती है,उतना ही महसूस होता है कि हम कुछ नहीं जानते.

इस विरोधाभास का फायदा उठानेवालों की भी कमी नहीं है.जालसाजियाँ,धोखाधड़ियाँ इसलिए होती रहती हैं, क्योंकि हमें उसके बारे में कुछ पता नहीं होता.जालसाज हमारे अज्ञान को भुनाकर अपनी जेबें भरते हैं.लेकिन ताज्जुब तब होता है जब विशेषज्ञ माने जाने वाले लोग भी जालसाजी करने से बाज नहीं आते.

प्रत्येक वैज्ञानिक क्षेत्र के अनेक उपक्षेत्र भी बन गए हैं.हर क्षेत्र में विशेषज्ञता आ गयी है.हर क्षेत्र की अपनी भाषा है.एक तरफ जहाँ ज्ञान-विज्ञान में प्रगति हो रही है वहीं अंधविश्वास,रहस्यवाद तथा नीमहकीमी भी बढ़ रही है.इन बातों ने हर युग के वैज्ञानिकों को परेशान किया है.

वैज्ञानिक खुद भी लोगों को भ्रमित कर सकते हैं.इस बात का प्रमाण अनेक घटनाओं  से मिला है.चार्ल्स डॉसन इंग्लैंड के एक सम्मानित मानवशास्त्री खास तौर पर जीवाश्मशास्त्री थे.लोग उनकी उपलब्धियों के लिए उनकी कद्र करते थे.1932 में पिल्टडाउन के निकट  एक गड्ढे से उन्होंने एक खोपड़ी और निचले जबड़े के कुछ टुकड़े खोज निकाले. खोपड़ी काफी सख्त थी और मानवीय खोपड़ी जैसी ही लगती थी.जबड़ा भी मानव के आकार का था.जबड़ा, हालांकि आदिम था और खोपड़ी काफी विकसित.फिर भी दोनों चीजें एक दूसरे में सटीक बैठती थीं.

यह वह समय था जब वैज्ञानिक डार्विन के विचारों के ठोस साक्ष्य तलाशने में लगे हुए थे.उन्हें ऐसे ही किसी साक्ष्य का इंतजार था.प्रख्यात जीवाश्मशास्त्री तथा ब्रिटिश म्यूजियम के संग्राहक स्मिथ वुडवर्ड ने डॉसन के पिल्टडाउन मानव को ‘इयोएन्थ्रोपस डॉसोनी’ नाम दिया और उसका चित्रांकन भी किया.

डॉसन खुद वुडवर्ड को उस स्थल पर ले गए थे,जहाँ पिल्टडाउन मानव की खोज हुई थी.उनके बाद अन्य जीवाश्मशास्त्री भी उस स्थल को देखने गए.प्रख्यात जासूसी लेखक सर आर्थर कानन डायल ने भी उस स्थान का दौरा किया.उन दिनों वे अपनी पुस्तक “The Lost World” लिख रहे थे.

डॉसन ने पिल्टडाउन में एक अन्य स्थल की खोज भी कर डाली,जहाँ से उन्होंने तथा उनके साथियों ने अनेक नए साक्ष्य भी खोज निकाले.कुछ अनगढ़ किस्म के औजार,एक अन्य खोपड़ी के कुछ अंश अन्य जानवरों के अवशेष आदि.इन सभी खोजों से यह प्रमाण मिलता था कि इंग्लैंड में 10 और 20 लाख साल पहले मानव रह रहा था.

डार्विन विकासवादी थे.उन्होंने विकास को धीमी प्रक्रिया के रूप में चित्रित किया था. डॉसन की खोज ने मानो डार्विन के सिद्धांत को पुख्ता आधार प्रदान कर दिया था. डॉसन की खोज को लोगों ने ‘विलुप्त कड़ी’ के साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर लिया.अगले 43 वर्षों तक किसी विद्वान ने इस पर अंगुली नहीं उठायी.

1955 में ब्रिटिश म्यूजियम ने इन जीवाश्मों से संबंधित एक रिपोर्ट प्रकाशित की.फ्लोरीन की मात्रा के परीक्षण से पता चला कि खोपड़ी पचास हजार वर्ष से ज्यादा पुरानी नहीं है और जबड़ा तो आधुनिक ही है.रासायनिक परीक्षणों से यह पता चला कि जबड़े पर इस तरह के धब्बे लगा दिए गए थे कि वह प्राचीन जैसा नजर आए.

जबड़े के दांतों को रेती से रेता गया था.एक्सरे से यह भी पता चला कि उन दांतों की जड़ें किसी चिम्पांजी या ओरांग के दांतों की तरह लंबी हैं.यानी किसी चिम्पांजी या ओरांग के जबड़े को जानबूझकर इस तरह का रूप देने की कोशिश की गयी थी कि वानर और मानव के बीच का लगे.यह काम किसके द्वारा किया गया था इसका आज तक पता नहीं चला.हालांकि जे.एस. बीनर ने अपनी पुस्तक ‘द पिल्टडाउन फोर्जरी’ में यह संकेत दिया है कि यह जालसाजी खुद डॉसन द्वारा की गयी थी.

प्रख्यात अमेरिकी लेखक डैन ब्राउन का उपन्यास Deception Point भी इसी तरह की वैज्ञानिक धोखाधड़ी से संबंधितहै.उनका कथानक नासा की पृष्ठभूमि में है.अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव होने वाले हैं और नासा के लगातार विफल मिशन के कारण उसके बजट में भरी कटौती कर दी जाती है.निवर्तमान राष्ट्रपति नासा के समर्थक हैं जबकि चुनाव  में उनके प्रतिद्वंदी नासा के भारी-भरकम बजट के आलोचक  हैं और लोगों के सामने इसकी विफलताओं को पेश करते रहे हैं.

नासा के वैज्ञानिक नासा और निवर्तमान राष्टपति की गिरते साख को बचाने के लिए एंटार्कटिका में बर्फ के कई फीट नीचे एक रहस्मय चट्टान के मिलने का दावा करते हैं जो एक करोड़ वर्ष पुरानी और दूसरे ग्रह से आई प्रतीत होती है.नासा के वैज्ञानिकों की साख फिर से बढ़ जाती है और दुनियां भर के तमाम वैज्ञानिक इसकी जांच-पड़ताल में जुट जाते हैं.जांच में कई नए तथ्य मिलते हैं जो बताते हैं की यह चट्टान मानव निर्मित है और इसे प्रयोगशाला में बनाकर एंटार्कटिका में बर्फ में ड्रिल कर काफी नीचे दबा दिया गया था.

डैन ब्राउन के अन्य उपन्यासों की तरह ही इसमें भी रहस्य,रोमांच का ताना-बाना है जो यही बताते हैं की वैज्ञानिक बिरादरी में भी धोखाधड़ी और जालसाजी आम बात है.

Thursday, January 5, 2017

कुछ रंग इनके भी


फ़िल्मी गीत,संगीत से इतर कुछ गीत,नज्म क्या दिल के करीब हैं आपके? जाहिर है,हममें से बहुतों के होंगें.कई गीत,नज्म जो किसी फिल्म के हिस्सा नहीं बने लेकिन हम सब के दिलों के बहुत करीब हैं और जेहन में बसते हैं.

जानी बाबू और युसूफ आजाद काफी बड़े कव्वाली गायक रहे हैं.लेकिन जानी बाबू का एक नज्म जो बहुत चर्चित नहीं हो सका वह मेरे दिल के बहुत करीब है....

खिलौनों की बारात गुड़ियों की शादी
तेरा शहजादा मेरी शहजादी
तुझे याद हो या न हो लेकिन
मुझे याद आते हैं बचपन के वो दिन

मुझे मोहित चौहान तबसे पसंद रहे हैं जबसे 90 के दशक में उनके बैंड सिल्क रूट का एलबम बूँदें निकला था.
इसका एक गीत तो मुझे आज भी बहुत पसंद है.....

डूबा-डूबा रहता हूँ
आँखों में तेरी
दीवाना बन गया हूँ
चाहत में तेरी

उषा उथुप भी मेरी पसंदीदा गायिका रही हैं और कई बार उनका लाईव शो भी देखा है.जब वे स्टेज पर रहती हैं पूरी तरह छाई रहती हैं और दर्शकों,श्रोताओं से संवाद बनाने में माहिर हैं.एक गीत जो कुछ अन्य बांग्ला गायिकाओं ने भी सुरों से नवाजा है लेकिन उषा उथुप की आवाज में खूब फबते हैं.....

आहा तुमि सुंदरी कोता.....
कोलकाता

उषा उथुप का 80 के दशक में एक एलबम आया था जिसके गीत हालांकि ज्यादा चर्चित नहीं हुए लेकिन वे अपने स्टेज शो में अक्सर गाती रही हैं.....

आज मेरे घर आयेंगे साजन
छम छम नाचूंगी मैं
छोड़ो जी छोड़ो मेरा आंचल
बाली उमर है अभी मेरी
शरमा जाउंगी हाय मैं घबरा जाउंगी

चंदन दास काफी लोकप्रिय गजल गायक रहे हैं और उनकी गजलें मुझे भी बहुत पसंद हैं लेकिन 90 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक ‘फिर वही तलाश’ में बशीर बद्र के लिखे और चंदन दास की सुरों से सजे गजल आज भी मुझे चंदन दास के सबसे उम्दा गजल लगते हैं......

मेरे हमसफ़र मेरे साथ तुम 
सभी मौसमों में रहा करो  

फिर इसका टाइटिल गीत .......

कभी हादसों की डगर मिले
कभी मुश्किलों का सफ़र मिले
ये चिराग हैं मेरी राह के,
मुझे मंजिलों की तलाश है